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Aah se Upja Gaan

by Mohit Mishra

Your weekly dose of Hindi-Hindwi poetry... The goal is to read a poem the way poem should be read. :)

Copyright: All rights reserved.

Episodes

किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar

5m · Published 30 Mar 13:13

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार

16m · Published 29 Mar 17:27

साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में

परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3

14m · Published 18 Jul 18:02

गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)

हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

खण्ड-2

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,

भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,

दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;

है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

खण्ड-3

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है।

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,

बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,

सतलुज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,

अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,

रण में समग्र भारत को ले जाना है ।

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,

गौतम को जयजयकार बोलना होगा।

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।

प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar

4m · Published 15 Jan 14:01

प्रणति-1

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

प्रणति-2

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

प्रणति-3

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

गीत कैसे लिखें? How to write songs in HINDI / URDU/ HINDWI ?

52m · Published 22 Nov 05:29

Dr. Jyotsana Sharma is an avid scholar and a well published poet. She had agreed to tell us fundamentals of Geet writing and this is the audio of the same video recording.

Kavya-Goshthi, Participants Mohit, Manish, Nilesh, Sumit on 17-10-21

46m · Published 17 Oct 19:23

Original Poems, Ghazals by four poetry lovers. We sat and got it recorded.

Rashmirathi Saptam Sarg part -2 रश्मीरथी सप्तम सर्ग-भाग २ by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra Karn ka Mahaprayan

44m · Published 08 Oct 09:49

रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल,

कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल ।

बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह,

उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक-समूह ।

हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर, दन्तावल का वृहित अपार,

टंकार धुनुर्गुण की भीम, दुर्मद रणशूरों की पुकार ।

खलमला उठा ऊपर खगोल, कलमला उठा पृथ्वी का तन,

सन-सन कर उड़ने लगे विशिख, झनझना उठी असियाँ झनझन ।

तालोच्च-तरंगावृत बुभुक्षु-सा लहर उठा संगर-समुद्र,

या पहन ध्वंस की लपट लगा नाचने समर में स्वयं रुद्र ।

हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना प्रज्वलित मर्त्य जन होता है ?

सुरपति से छले हुए नर का कैसा प्रचण्ड रण होता है ?

अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण,

सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण ।

यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश,

हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश ।

भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,

भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !

'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे,

दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे ।

काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण ।

सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण ।

अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह;

कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह ।

गरजा अशङक हो कर्ण, 'शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं,

कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं ।

बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके,

लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके ।

इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज,

टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज ।

लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,

सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया ।

भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव,

कौतुक से बोला, 'महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव ।

हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं ।

आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं ।

'हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,

क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?

मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,

जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये ।'

भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज,

सोचते, "कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?

प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?

आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया ।"

समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण,

गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?

लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,

खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया ।

कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में,

चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में ।

सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,

कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर ।

देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन,

बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन,

'रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?

मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?'

'संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?

मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?

रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है,

कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है ।'

हंसकर बोला राधेय, 'शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी,

क्षयमान्, क्षनिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी ।

इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं,

करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं ।

'पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से,

होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से;

यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है,

यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है ।

'सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को,

पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को,

सबके समेत पङिकल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?

ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?

यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?

मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान ।

कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को,

ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को

ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,

ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के ।

ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,

ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी ।'

'समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं,

ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं ।

जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,

दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं ।'

समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला 'प्रलाप यह बन्द करो,

हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो ।

लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है,

पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है ।'

'क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है,

आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है ।

राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,

थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो ।'

पार्थ को देख उच्छल-उमंग-पूरित उर-पारावार हुआ,

दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ ।

वोला 'विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,

जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया ।

'जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,

आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण ।

आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,

ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें ।'

'पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,

हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा ।

हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,

शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है ।'

कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,

बोला, 'रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय ।

पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं,

धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं ।'

यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,

अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया ।

पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास,

रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश ।

बोला, 'शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा;

पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा ।

मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो,

साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो ।'

'अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,

जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा ।'

कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,

हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके ।'

संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,

तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन ।

कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ,

सब लगे पूछने, 'अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?'

पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द;

क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द ।

प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,

थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार ।

इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,

रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान ।

जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,

अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द ।

है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,

भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन ।

थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,

ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर ।

अहा ! यह युग्म दो अद्भुत नरों का,

महा मदमत्त मानव- कुंजरों का;

नृगुण के मूर्तिमय अवतार ये दो,

मनुज-कुल के सुभग श्रृंगार ये दो।

परस्पर हो कहीं यदि एक पाते,

ग्रहण कर शील की यदि टेक पाते,

मनुजता को न क्या उत्थान मिलता ?

अनूठा क्या नहीं वरदान मिलता ?

मनुज की जाति का पर शाप है यह,

अभी बाकी हमारा पाप है यह,

बड़े जो भी कुसुम कुछ फूलते हैं,

अहँकृति में भ्रमित हो भूलते हैं ।

नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते,

झगड़ कर विश्व का संहार करते ।

जगत को डाल कर नि:शेष दुख में,

शरण पाते स्वयं भी काल-मुख में ।

चलेगी यह जहर की क्रान्ति कबतक ?

रहेगी शक्ति-वंचित शांति कबतक ?

मनुज मनुजत्व से कबतक लड़ेगा ?

अनल वीरत्व से कबतक झड़ेगा ?

विकृति जो प्राण में अंगार भरती,

हमें रण के लिए लाचार करती,

घटेगी तीव्र उसका दाह कब तक ?

मिलेगी अन्य उसको राह कब तक ?

हलाहल का शमन हम खोजते हैं,

मगर, शायद, विमन हम खोजते हैं,

बुझाते है दिवस में जो जहर हम,

जगाते फूंक उसको रात भर हम ।

किया कुंचित, विवेचन व्यस्त नर का,

हृदय शत भीति से संत्रस्त नर का ।

महाभारत मही पर चल रहा है,

भुवन का भाग्य रण में जल रहा है ।

चल रहा महाभारत का रण,

जल रहा धरित्री का सुहाग,

फट कुरुक्षेत्र में खेल रही

नर के भीतर की कुटिल आग ।

बाजियों-गजों की लोथों में

गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,

बह रहा चतुष्पद और द्विपद

का रुधिर मिश्र हो एक संग ।

गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर-से

लिये रक्त-रंजित शरीर,

थे जूझ रहे कौन्तेय-कर्ण

क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर ।

दोनों रणकृशल धनुर्धर नर,

दोनों समबल, दोनों समर्थ,

दोनों पर दोनों की

Rashmirathi Saptam Sarg part -1 रश्मीरथी सप्तम सर्ग-भाग १ कर्ण की हुंकार Karna Ki Hunkar by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra

13m · Published 06 Oct 18:47

1

निशा बीती, गगन का रूप दमका,

किनारे पर किसी का चीर चमका।

क्षितिज के पास लाली छा रही है,

अतल से कौन ऊपर आ रही है ?

संभाले शीश पर आलोक-मंडल

दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल,

किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी,

शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,

खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन

कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन,

दिवस की स्वामिनी आई गगन में,

उडा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में ।

मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर,

अलग बैठा हुआ है दूर होकर,

उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे ?

करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे ?

मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है,

कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,

प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ?

सितारों के हृदय में राह खोजे ?

विभा नर को नहीं भरमायगी यह है ?

मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह ?

कभी मिलता नहीं आराम इसको,

न छेड़ो, है अनेकों काम इसको ।

महाभारत मही पर चल रहा है,

भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।

मनुज ललकारता फिरता मनुज को,

मनुज ही मारता फिरता मनुज को ।

पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,

सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,

न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,

निगल ही जायगी सद्धर्म को वह ।

मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,

पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,

मचे घनघोर हाहाकार जग में,

भरे वैधव्य की चीत्कार जग में,

मगर, पत्थर हुआ मानव- हृदय है,

फकत, वह खोजता अपनी विजय है,

नहीं ऊपर उसे यदि पायगा वह,

पतन के गर्त में भी जायगा वह ।

पड़े सबको लिये पाण्डव पतन में,

गिरे जिस रोज होणाचार्य रण में,

बड़े धर्मिंष्ठ, भावुक और भोले,

युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बोले ।

नहीं थोड़े बहुत का मेद मानो,

बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,

गलेंगे बर्फ में मन भी, नयन भी,

अँगूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी ।

नमन उनको, गये जो स्वर्ग मर कर,

कलंकित शत्रु को, निज को अमर कर,

नहीं अवसर अधिक दुख-दैन्य का है,

हुआ राधेय नायक सैन्य का है ।

जगा लो वह निराशा छोड़ करके,

द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,

गरजता ज्योति-के आधार ! जय हो,

चरम आलोक मेरा भी उदय हो ।

बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,

किरण सारी सिमट कर आज छुटे ।

छिपे हों देवता ! अंगार जो भी,"

दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,

उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे !

मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे !

पवन का वेग दो, दुर्जय अनल दो,

विकर्तन ! आज अपना तेज-बल हूँ दो !

मही का सूर्य होना चाहता हूँ,

विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।

समय को चाहता हूँ दास करना,

अभय हो मृत्यु का उपहास करना ।

भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,

हिमालय को उठाना चाहता हूँ,

समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,

धरा हूँ चाहता श्री को करों से ।

ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,

हथेली पर नचाना चाहता हूँ ।

मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,

हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।

समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,

धधक कर आज जीना चाहता हूँ,

समय को बन्द करके एक क्षण में,

चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं ।

असंभव कल्पना साकार होगी,

पुरुष की आज जयजयकार होगी।

समर वह आज ही होगा मही पर,

न जैसा था हुआ पहले कहीं पर ।

चरण का भार लो, सिर पर सँभालो;

नियति की दूतियो ! मस्तक झुका लो ।

चलो, जिस भाँति चलने को कहूँ मैं,

ढलो, जिस माँति ढलने को कहूँ मैं ।

न कर छल-छद्म से आघात फूलो,

पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भूलो ।

कुचल दूँगा, निशानी मेट दूँगा,

चढा दुर्जय भुजा की भेंट दूँगा ।

अरी, यों भागती कबतक चलोगी ?

मुझे ओ वंचिके ! कबतक छलोगी ?

चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा ?

रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा ?

अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,

हृदय की भावना निष्काम तुमसे,

चले संघर्ष आठों याम तुमसे,

करूँगा अन्त तक संग्राम तुमसे ।

कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ?

कहाँ तक सिद्धियां मेरी हरोगी ?

तुम्हारा छद्म सारा शेष होगा,

न संचय कर्ण का नि:शेष होगा ।

कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,

भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,

गई एकघ्नि तो सब कुछ गया क्या ?

बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या ?

समर की सूरता साकार हूँ मैं,

महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।

विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,

कवच है आज तक का धर्म मेरा ।

तपस्याओ ! उठो, रण में गलो तुम,

नई एकघ्नियां वन कर ढलो तुम,

अरी ओ सिद्धियों की आग, आओ;

प्रलय का तेज बन मुझमें समाओ ।

कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम,

अरी व्रत-साधने ! आकार लो तुम ।

हमारे योग की पावन शिखाओ,

समर में आज मेरे साथ आओ ।

उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी,

मनुज-निष्ठा, दलित-कल्याण से भी,

चलें वे भी हमारे साथ होकर,

पराक्रम-शौर्य की ज्वाला संजो कर ।

हृदय से पूजनीया मान करके,

बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,

सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,

अगर आशीष उनसे ले सका हूँ,

समर में तो हमारा वर्म हो वह,

सहायक आज ही सत्कर्म हो वह ।

सहारा, माँगता हूँ पुण्य-बल का,

उजागर धर्म का, निष्ठा अचल का।

प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,

विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ ।

स्वयं भगवान मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं,

अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।

मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,

नहीं गोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुकेगा,

बताऊँगा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,

समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है ।

बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,

'बनाना ग्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,

पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,

सभी के सामने ललकार को मन मार सहना ।

प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,

धनुष ढीला, शिथिल उसका जरा कुछ तीर हो जब ।

कहाँ का धर्म ? कैसी भर्त्सना की बात है यह ?

नहीं यह वीरता, कौटिल्य का अपघात है यह ।

समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,

जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं ।

हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह धर्म था क्या ?

समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या ?

यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है ?

मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही है ?

यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा ?

जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा ?

करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब क्वा क्षमा है,

मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है ?

चलें वे बुद्धि की ही चाल, मैं बल से चलूंगा ?

न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छलूंगा ।

डिगाना घर्म क्या इस चार बित्त्रों की मही को ?

भुलाना क्या मरण के बादवाली जिन्दगी को ?

बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर !

मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर ?

नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,

विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा !

विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं बलिदान का हूँ;

असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ ।

जगी, वलिदान की पावन शिखाओ,

समर में आज कुछ करतब दिखाओ ।

नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,

धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो ।

मचे भूडोल प्राणों के महल में,

समर डूबे हमारे बाहु-बल में ।

गगन से वज्र की बौछार छूटे,

किरण के तार से झंकार फूटे ।

चलें अचलेश, पारावार डोले;

मरण अपनी पुरी का द्वार खोले ।

समर में ध्वंस फटने जा रहा है,

महीमंडल उलटने जा रहा है ।

अनूठा कर्ण का रण आज होगा,

जगत को काल-दर्शन आज होगा ।

प्रलय का भीम नर्तन आज होगा,

वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा ।

विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,

नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा ।

गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,

जयी कुरुराज लौटेगा समर से ।

बना आनन्द उर में छा रहा है,

लहू में ज्वार उठता जा रहा है ।

हुआ रोमांच यह सारे बदन में,

उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में ।

अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ,

जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ ?

बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,

सजाओ, शल्य ! मेरा रथ सजाओ ।

Rashmirathi Shast Sarg part -2 रश्मीरथी षष्ठ सर्ग-भाग २ By Pandit Ramdhari Singh Dinkar Mohit Mishra

28m · Published 03 Oct 17:40

भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र-धनुधारी सा,

केसरी अभय मगचारी-सा,

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन घनघोर चला।

पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कौरव-सेना का शोक गया,

आशा की नवल तरंग उठी,

जन-जन में नयी उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन।

सेना समग्र हुकांर उठी,

‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,

उल्लास मुक्त हो छहर उठा,

रण-जलधि घोष में घहर उठा,

बज उठी समर-भेरी भीषण,

हो गया शुरू संग्राम गहन।

सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,

विकराल दण्डधर-सा कठोर,

अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा।

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली।

झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को तोड़-मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सब की छूटने लगी,

ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।

प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,

जिस तरह काँपती है कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण,

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,

त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,

मच गयी बड़ी भीषण हलचल।

सब रथी व्यग्र बिललाते थे,

कोलाहल रोक न पाते थे।

सेना का यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधीर हो मधुसूदन,

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।

"दे अचिर सैन्य का अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,

तू नहीं जानता है यह क्या ?

करता न शत्रु पर कर्ण दया ?

दाहक प्रचण्ड इसका बल है,

यह मनुज नहीं, कालानल है।

"बड़वानल, यम या कालपवन,

करते जब कभी कोप भीषण

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है;

कुछ भी न शेष रह पाता है।

बाणों का अप्रतिहत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय,

तू इसे रोक भी पायेगा ?

या खड़ा मूक रह जायेगा।

‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर,

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता है?

पथ उधर स्वयं बन जाता है।

तू नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?

‘अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा,

शैथिल्य प्राण-घातक होगा,

उठ जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

धर धनुष-बाण अपना कठोर।

तू नहीं जोश में आयेगा

आज ही समर चुक जायेगा।"

केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों चिग्घार पहाड़ उठा।

बाणों की फिर लग गयी झड़ी,

भागती फौज हो गयी खड़ी।

जूझने लगे कौन्तेय-कर्ण,

ज्यों लड़े परस्पर दो सुपर्ण।

एक ही वृम्त के को कुड्मल, एक की कुक्षि के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।

अन्धड़ बन कर उन्माद उठा,

दोनों दिशि जयजयकार हुई।

दोनों पक्षों के वीरों पर,

मानो, भैरवी सवार हुई।

कट-कट कर गिरने लगे क्षिप्र,

रूण्डों से मुण्ड अलग होकर,

बह चली मनुज के शोणित की

धारा पशुओं के पग धोकर।

लेकिन, था कौन, हृदय जिसका,

कुछ भी यह देख दहलता था ?

थो कौन, नरों की लाशों पर,

जो नहीं पाँव धर चलता था ?

तन्वी करूणा की झलक झीन

किसको दिखलायी पड़ती थी ?

किसको कटकर मरनेवालों की

चीख सुनायी पड़ती थी ?

केवल अलात का घूर्णि-चक्र,

केवल वज्रायुध का प्रहार,

केवल विनाशकारी नत्र्तन,

केवल गर्जन, केवल पुकार।

है कथा, द्रोण की छाया में

यों पाँच दिनों तक युद्ध चला,

क्या कहें, धर्म पर कौन रहा,

या उसके कौन विरूद्ध चला ?

था किया भीष्म पर पाण्डव ने,

जैसे छल-छद्मों से प्रहार,

कुछ उसी तरह निष्ठुरता से

हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !

फिर भी, भावुक कुरूवृद्ध भीष्म,

थे युग पक्षों के लिए शरण,

कहते हैं, होकर विकल,

मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।

अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु

अब तक भी हृदय हिलाती है,

सभ्यता नाम लेकर उसका

अब भी रोती, पछताती है।

पर, हाय, युद्ध अन्तक-स्वरूप,

अन्तक-सा ही दारूण कठोर,

देखता नहीं ज्यायान्-युवा,

देखता नहीं बालक-किशोर।

सुत के वध की सुन कथा पार्थ का,

दहक उठा शोकात्र्त हृदय,

फिर किया क्रुद्ध होकर उसने,

तब महा लोम-हर्षक निश्चय,

‘कल अस्तकाल के पूर्व जयद्रथ

को न मार यदि पाऊँ मैं,

सौगन्ध धर्म की मुझे, आग में

स्वयं कूद जल जाऊँ मैं।’

तब कहते हैं अर्जुन के हित,

हो गया प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,

माया की सहसा शाम हुई,

असमय दिनेश हो गये अस्त।

ज्यों त्यों करके इस भाँति वीर

अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,

सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक

निर्दोष पिता का चुर्ण हुआ।

हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से,

जब निपट रहा था भूरिश्रवा,

पार्थ ने काट ली, अनाहूत,

शर से उसकी दाहिनी भुजा।

औ‘ भूरिश्रवा अनशन करके,

जब बैठ गया लेकर मुनि-व्रत,

सात्यकि ने मस्तक काट लिया,

जब था वह निश्चल, योग-निरत।

है वृथा धर्म का किसी समय,

करना विग्रह के साथ ग्रथन,

करूणा से कढ़ता धर्म विमल,

है मलिन पुत्र हिंसा का रण।

जीवन के परम ध्येय-सुख-को

सारा समाज अपनाता है,

देखना यही है कौन वहाँ

तक किस प्रकार से जाता है ?

है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो

जीवन भर चलने में है।

फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति

दीपक समान जलने में है।

यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त

हो जाती परतापी को भी,

सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;

मिल जाते है पापी को भी।

इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो

सदा निहित, साधन में है,

वह नहीं सिकी भी प्रधन-कर्म,

हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म,

समझे मनुष्य संहारों को,

गूँथना चाहते वे, फूलों के

साथ तप्त अंगारों को।

हो जिसे धर्म से प्रेम कभी

वह कुत्सित कर्म करेगा क्या ?

बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर

मारेगा और मरेगा क्या ?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी

तक भी खोटे के खोटे हैं,

हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर

लेकिन, छोटे के छोटे हैं।

संग्राम धर्मगुण का विशेष्य

किस तरह भला हो सकता है ?

कैसे मनुष्य अंगारों से

अपना प्रदाह धो सकता है ?

सर्पिणी-उदर से जो निकला,

पीयूष नहीं दे पायेगा,

निश्छल होकर संग्राम धर्म का

साथ न कभी निभायेगा।

मानेगा यह दंष्ट्री कराल

विषधर भुजंग किसका यन्त्रण ?

पल-पल अति को कर धर्मसिक्त

नर कभी जीत पाया है रण ?

जो ज़हर हमें बरबस उभार,

संग्राम-भूमि में लाता है,

सत्पथ से कर विचलित अधर्म

की ओर वही ले जाता है।

साधना को भूल सिद्धि पर जब

टकटकी हमारी लगती है,

फिर विजय छोड़ भावना और

कोई न हृदय में जगती है।

तब जो भी आते विघ्न रूप,

हो धर्म, शील या सदाचार,

एक ही सदृश हम करते हैं

सबके सिर पर पाद-प्रहार।

उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,

होती है इन्हें कुचलने में,

जितनी होती है रोज़ कंकड़ो

के ऊपर हो चलने में।

सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे

नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?

जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,

छोटी बातों का ध्यान करे ?

चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,

जानता नहीं, क्या करता है,

नीच पथ में है कौन ? पाँव

जिसके मस्तक पर धरता है।

काटता शत्रु को वह लेकिन,

साथ ही धर्म कट जाता है,

फाड़ता विपक्षी को अन्तर

मानवता का फट जाता है।

वासना-वह्नि से जो निकला,

कैसे हो वह संयुग कोमल ?

देखने हमें देगा वह क्यों,

करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?

जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,

माँड़ी बन कर छा जाता है

तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े

दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।

फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव

भी नहीं धर्म के साथ रहे ?

जो रंग युद्ध का है, उससे,

उनके भी अलग न हाथ रहे।

दोनों ने कालिख छुई शीश पर,

जय का तिलक लगाने को,

सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,

विजय-विन्दु तक जाने को।

इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के

दाहक कई दिवस बीते;

पर, विजय किसे मिल सकती थी,

जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?

था कौन सत्य-पथ पर डटकर,

जो उनसे योग्य समर करता ?

धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,

अपना नाम अमर करता ?

था कौन, देखकर उन्हें समर में

जिसका हृदय न कँपता था ?

मन ही मन जो निज इष्ट देव का

भय से नाम न जपता था ?

कमलों के वन को जिस प्रकार

विदलित करते मदकल कुज्जर,

थे विचर रहे पाण्डव-दल में

त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।

संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त,

सारे जीवन से छला हुआ,

राधेय पाण्डवों के ऊपर

दारूण अमर्ष से जला हुआ;

इस तरह शत्रुदल पर टूटा,

जैसे हो दावानल अजेय,

या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से

उतर मनुज पर कात्र्तिकेय।

संघटित या कि उनचास मरूत

कर्ण के प्राण में छाये हों,

या कुपित सूय आकाश छोड़

नीचे भूतल पर आये हों।

अथवा रण में हो गरज रहा

धनु लिये अचल प्रालेयवान,

या महाकाल बन टूटा हो

भू पर ऊपर से गरूत्मान।

बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,

हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,

जल उठी कर्ण के पौरूष की

कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।

दिग्गज-दराज वीरों की भी

छाती प्रहार से उठी हहर,

सामने प्रलय को देख गये

गजराजों के भी पाँव उखड़।

जन-जन के जीवन पर कराल,

दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,

पाण्डव-सेना का हृास देख

केशव का वदन विवर्ण हुआ।

सोचने लगे, छूटेंगे क्या

सबके विपन्न आज ही प्राण ?

सत्य ही, नहीं क्या है कोई

इस कुपित प्रलय का समाधान ?

"है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?"

राधेय गरजता था क्षण-क्षण।

"करता क्यों नही प्रकट होकर,

अपने कराल प्रतिभट से रण ?

क्या इन्हीं मूलियों से मेरी

रणकला निबट रह जायेगी ?

या किसी वीर पर भी अपना,

वह चमत्कार दिखलायेगी ?

"हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,

अब हाथ समेटे लेता हूँ,

सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,

मैं उसे चुनौती देता हूँ।

हिम्मत हो तो वह बढ़े,

व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,

दे मुझे जन्म का लाभ और

साहस हो तो खुद भी पाये।"

पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,

रथ अलग नचाये फिरते थे,

कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,

शिष्य को बचाये फिरते थे।

Aah se Upja Gaan has 21 episodes in total of non- explicit content. Total playtime is 7:22:18. The language of the podcast is Hindi. This podcast has been added on July 4th 2022. It might contain more episodes than the ones shown here. It was last updated on April 18th, 2024 08:41.

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