Rashmirathi Tritiya Sarg Part 2 रश्मीरथी तृतीय सर्ग भाग २ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर
18m
·
Aah se Upja Gaan
·
भगवान सभा को छोड़ चले,
करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर।
रथ चला परस्पर बात चली,
शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,
अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है।
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,
मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे।
"चिंता है, मैं क्या और करूं?
शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है।
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?
तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर।
"माँ का सनेह पाया न कभी,
सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को।
"पर कौन दोष इसमें तेरा?
अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे।
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे।
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,
धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी।
"रण अनायास रुक जायेगा,
कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे।
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"जब ध्यान जन्म का धरता हूँ,
उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,
पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं।
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,
उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,
अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली-फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,
अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,
यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,
मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,
सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"मैं भी कुन्ती का एक तनय,
जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,
सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं
"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
चलता ना छत्र पुरखों का धर।
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है।
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
"कुल-जाति नही साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा।
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
मैने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है।
"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है।
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है।
"जिस नर की बाह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,
"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ।
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ।
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर।
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?
"सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है।
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?<
The episode Rashmirathi Tritiya Sarg Part 2 रश्मीरथी तृतीय सर्ग भाग २ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर from the podcast Aah se Upja Gaan has a duration of
18:08. It was first published
More episodes from Aah se Upja Gaan
किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar
तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?
भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !
खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !
दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !
उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !
Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार
साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में
परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
खण्ड-2
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
खण्ड-3
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,
हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।
हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,
बम की महिमा को और विनय के बल को।
हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,
वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।
जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,
सतलुज को साबरमती पुकार रही है।
वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,
हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।
है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?
बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।
वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,
अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।
जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,
वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,
जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,
शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,
उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?
विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?
केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,
टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।
गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,
हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।
युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,
सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,
उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,
शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।
चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।
ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।
योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।
बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।
है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,
रण में समग्र भारत को ले जाना है ।
पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,
शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।
असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,
गौतम को जयजयकार बोलना होगा।
यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,
तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।
ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,
हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।
प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar
प्रणति-1
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रहीं लू लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा ?
साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।
कलम, आज उनकी जय बोल ।
प्रणति-2
नमन उन्हें मेरा शत बार ।
सूख रही है बोटी-बोटी,
मिलती नहीं घास की रोटी,
गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।
अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,
शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,
रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।
जिनकी चढ़ती हुई जवानी
खोज रही अपनी क़ुर्बानी
जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।
दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,
स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,
जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।
नमन उन्हें मेरा शत बार ।
वीर, तुम्हारा लिए सहारा
टिका हुआ है भूतल सारा,
होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।
नमन तुम्हें मेरा शत बार ।
चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,
जीवन का बल-तेज जगा लूँ,
मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।
नमन तुम्हें मेरा शत बार ।
प्रणति-3
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।
'जय हो', नव होतागण ! आओ,
संग नई आहुतियाँ लाओ,
जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।
टूटी नहीं शिला की कारा,
लौट गयी टकरा कर धारा,
सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।
फिर डंके पर चोट पड़ी है,
मौत चुनौती लिए खड़ी है,
लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?
आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।
(१९३८ ई०)