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Rashmirathi Saptam Sarg part -1 रश्मीरथी सप्तम सर्ग-भाग १ कर्ण की हुंकार Karna Ki Hunkar by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra

13m · Aah se Upja Gaan · 06 Oct 18:47

1

निशा बीती, गगन का रूप दमका,

किनारे पर किसी का चीर चमका।

क्षितिज के पास लाली छा रही है,

अतल से कौन ऊपर आ रही है ?

संभाले शीश पर आलोक-मंडल

दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल,

किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी,

शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,

खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन

कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन,

दिवस की स्वामिनी आई गगन में,

उडा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में ।

मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर,

अलग बैठा हुआ है दूर होकर,

उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे ?

करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे ?

मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है,

कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,

प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ?

सितारों के हृदय में राह खोजे ?

विभा नर को नहीं भरमायगी यह है ?

मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह ?

कभी मिलता नहीं आराम इसको,

न छेड़ो, है अनेकों काम इसको ।

महाभारत मही पर चल रहा है,

भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।

मनुज ललकारता फिरता मनुज को,

मनुज ही मारता फिरता मनुज को ।

पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,

सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,

न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,

निगल ही जायगी सद्धर्म को वह ।

मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,

पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,

मचे घनघोर हाहाकार जग में,

भरे वैधव्य की चीत्कार जग में,

मगर, पत्थर हुआ मानव- हृदय है,

फकत, वह खोजता अपनी विजय है,

नहीं ऊपर उसे यदि पायगा वह,

पतन के गर्त में भी जायगा वह ।

पड़े सबको लिये पाण्डव पतन में,

गिरे जिस रोज होणाचार्य रण में,

बड़े धर्मिंष्ठ, भावुक और भोले,

युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बोले ।

नहीं थोड़े बहुत का मेद मानो,

बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,

गलेंगे बर्फ में मन भी, नयन भी,

अँगूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी ।

नमन उनको, गये जो स्वर्ग मर कर,

कलंकित शत्रु को, निज को अमर कर,

नहीं अवसर अधिक दुख-दैन्य का है,

हुआ राधेय नायक सैन्य का है ।

जगा लो वह निराशा छोड़ करके,

द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,

गरजता ज्योति-के आधार ! जय हो,

चरम आलोक मेरा भी उदय हो ।

बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,

किरण सारी सिमट कर आज छुटे ।

छिपे हों देवता ! अंगार जो भी,"

दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,

उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे !

मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे !

पवन का वेग दो, दुर्जय अनल दो,

विकर्तन ! आज अपना तेज-बल हूँ दो !

मही का सूर्य होना चाहता हूँ,

विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।

समय को चाहता हूँ दास करना,

अभय हो मृत्यु का उपहास करना ।

भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,

हिमालय को उठाना चाहता हूँ,

समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,

धरा हूँ चाहता श्री को करों से ।

ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,

हथेली पर नचाना चाहता हूँ ।

मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,

हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।

समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,

धधक कर आज जीना चाहता हूँ,

समय को बन्द करके एक क्षण में,

चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं ।

असंभव कल्पना साकार होगी,

पुरुष की आज जयजयकार होगी।

समर वह आज ही होगा मही पर,

न जैसा था हुआ पहले कहीं पर ।

चरण का भार लो, सिर पर सँभालो;

नियति की दूतियो ! मस्तक झुका लो ।

चलो, जिस भाँति चलने को कहूँ मैं,

ढलो, जिस माँति ढलने को कहूँ मैं ।

न कर छल-छद्म से आघात फूलो,

पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भूलो ।

कुचल दूँगा, निशानी मेट दूँगा,

चढा दुर्जय भुजा की भेंट दूँगा ।

अरी, यों भागती कबतक चलोगी ?

मुझे ओ वंचिके ! कबतक छलोगी ?

चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा ?

रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा ?

अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,

हृदय की भावना निष्काम तुमसे,

चले संघर्ष आठों याम तुमसे,

करूँगा अन्त तक संग्राम तुमसे ।

कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ?

कहाँ तक सिद्धियां मेरी हरोगी ?

तुम्हारा छद्म सारा शेष होगा,

न संचय कर्ण का नि:शेष होगा ।

कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,

भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,

गई एकघ्नि तो सब कुछ गया क्या ?

बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या ?

समर की सूरता साकार हूँ मैं,

महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।

विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,

कवच है आज तक का धर्म मेरा ।

तपस्याओ ! उठो, रण में गलो तुम,

नई एकघ्नियां वन कर ढलो तुम,

अरी ओ सिद्धियों की आग, आओ;

प्रलय का तेज बन मुझमें समाओ ।

कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम,

अरी व्रत-साधने ! आकार लो तुम ।

हमारे योग की पावन शिखाओ,

समर में आज मेरे साथ आओ ।

उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी,

मनुज-निष्ठा, दलित-कल्याण से भी,

चलें वे भी हमारे साथ होकर,

पराक्रम-शौर्य की ज्वाला संजो कर ।

हृदय से पूजनीया मान करके,

बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,

सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,

अगर आशीष उनसे ले सका हूँ,

समर में तो हमारा वर्म हो वह,

सहायक आज ही सत्कर्म हो वह ।

सहारा, माँगता हूँ पुण्य-बल का,

उजागर धर्म का, निष्ठा अचल का।

प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,

विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ ।

स्वयं भगवान मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं,

अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।

मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,

नहीं गोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुकेगा,

बताऊँगा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,

समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है ।

बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,

'बनाना ग्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,

पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,

सभी के सामने ललकार को मन मार सहना ।

प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,

धनुष ढीला, शिथिल उसका जरा कुछ तीर हो जब ।

कहाँ का धर्म ? कैसी भर्त्सना की बात है यह ?

नहीं यह वीरता, कौटिल्य का अपघात है यह ।

समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,

जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं ।

हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह धर्म था क्या ?

समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या ?

यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है ?

मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही है ?

यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा ?

जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा ?

करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब क्वा क्षमा है,

मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है ?

चलें वे बुद्धि की ही चाल, मैं बल से चलूंगा ?

न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छलूंगा ।

डिगाना घर्म क्या इस चार बित्त्रों की मही को ?

भुलाना क्या मरण के बादवाली जिन्दगी को ?

बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर !

मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर ?

नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,

विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा !

विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं बलिदान का हूँ;

असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ ।

जगी, वलिदान की पावन शिखाओ,

समर में आज कुछ करतब दिखाओ ।

नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,

धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो ।

मचे भूडोल प्राणों के महल में,

समर डूबे हमारे बाहु-बल में ।

गगन से वज्र की बौछार छूटे,

किरण के तार से झंकार फूटे ।

चलें अचलेश, पारावार डोले;

मरण अपनी पुरी का द्वार खोले ।

समर में ध्वंस फटने जा रहा है,

महीमंडल उलटने जा रहा है ।

अनूठा कर्ण का रण आज होगा,

जगत को काल-दर्शन आज होगा ।

प्रलय का भीम नर्तन आज होगा,

वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा ।

विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,

नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा ।

गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,

जयी कुरुराज लौटेगा समर से ।

बना आनन्द उर में छा रहा है,

लहू में ज्वार उठता जा रहा है ।

हुआ रोमांच यह सारे बदन में,

उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में ।

अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ,

जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ ?

बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,

सजाओ, शल्य ! मेरा रथ सजाओ ।

The episode Rashmirathi Saptam Sarg part -1 रश्मीरथी सप्तम सर्ग-भाग १ कर्ण की हुंकार Karna Ki Hunkar by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra from the podcast Aah se Upja Gaan has a duration of 13:24. It was first published 06 Oct 18:47. The cover art and the content belong to their respective owners.

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किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार

साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में

परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3

गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)

हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

खण्ड-2

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,

भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,

दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;

है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

खण्ड-3

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है।

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,

बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,

सतलुज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,

अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,

रण में समग्र भारत को ले जाना है ।

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,

गौतम को जयजयकार बोलना होगा।

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।

प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar

प्रणति-1

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

प्रणति-2

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

प्रणति-3

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

Some Couplets of Munnavvar Rana. मुन्नव्वर राना की चुनिंदा शायरियाँ

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