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Rashmirathi Pancham Sarg part -1 रश्मीरथी पंचम सर्ग-भाग १ Voice Mohit Mishra

35m · Aah se Upja Gaan · 24 Sep 03:53

Kunti Meets Karna

आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,

निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का ।

हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,

कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी ।

कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,

रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी ।

संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,

सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा ।

जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,

परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा ।

कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,

नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे ।

सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,

कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में ।

'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?

सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?

'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,

सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?

सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,

अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?

दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,

जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,

पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,

बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?

'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?

समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?

हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,

है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?

गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,

धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं ।

तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?

मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,

गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी ।

तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं

सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं ।

लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?

किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?

माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है

बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है ।

क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?

उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?

किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,

इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,

बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से ।

सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,

सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर ।

उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,

सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी ।

आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,

कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी ।

दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,

थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर ।

लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,

खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे ।

राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,

था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये ।

तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,

दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था ।

मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,

हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर ।

अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,

हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले ।

या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,

हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,

अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,

मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर ।

सुत की शोभा को देख मोद में फूली,

कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली ।

भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,

वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को ।

आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला,

कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला,

"पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ,

राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ

"हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आयी हैं ?

मेरे निमित्त आदेश कौन लायी हैं ?

यह कुरूक्षेत्र की भूमि, युद्ध का स्थल है,

अस्तमित हुआ चाहता विभामण्डल है।

"सूना, औघट यह घाट, महा भयकारी,

उस पर भी प्रवया आप अकेली नारी।

हैं कौन ? देवि ! कहिये, क्या काम करूँ मैं ?

क्या भक्ति-भेंट चरणों पर आन धरूँ मैं ?

सुन गिरा गूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा,

भीतर का क्लेश अपार अश्रु बन फूटा।

विगलित हो उसने कहा काँपते स्वर से,

"रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारूण शर से।

"राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है,

जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है।

तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है,

अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।

"जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया,

तू उसी तरह था प्रथम कुक्षि में आया।

पा तुझे धन्य थी हुई गोद यह मेरी,

मैं ही अभागिनी पृथा जननि हूँ तेरी।

"पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था,

अनमोल लाल मैंने असमय पाया था।

अतएव, हाय ! अपने दुधमुँहे तनय से,

भागना पड़ा मुझको समाज के भय से

"बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी,

अबला होती, सममुच, योषिता कुमारी।

है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,

सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।

"उस पर भी बाल अबोध, काल बचपन का,

सूझा न शोध मुझको कुछ और पतन का।

मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,

धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।

"संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला,

उन दयामयी पर तनिक न मुझे कसाला।

ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी,

अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।

"पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,

आदेश नहीं, प्रार्थना साथ लायी हूँ।

कल कुरूक्षेत्र में जो संग्राम छिड़ेगा,

क्षत्रिय-समाज पर कल जो प्रलय घिरेगा।

"उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो लड़ तू,

मत उन्हें मार, या उनके हाथों मत तू।

मेरे ही सुत मेरे सुत को ह मारें;

हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।

"यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा,

अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा।

जो छिपकर थी अबतक कुरेदती मन को,

बतला दूँगी वह व्यथा समग्र भुवन को।

भागी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय से,

फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से,

उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँगी,

डर चुकी बहुत, अब और न अधिक डरूँगी।

"थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ,

मरने के पहले तुँझे अंक में भर लूँ।

वह समय आज रण के मिस से आया है,

अवसर मैंने भी क्या अद्भुत पाया है !

बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही,

लेकिन, विरंचि निकला कितना निर्मोही !

तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने,

यह गोपन जन्म-रहस्य तुझे बतलाने।

"पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,

यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,

अब दौड़ वत्स ! गोदी में वापस आ तू,

आ गया निकट विध्वंस, न देर लगा तू।

"जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,

रे कर्ण ! समर में अब मारेगा किसको ?

पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही है

अग्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है।

"नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू,

अनुजों पर छत्र विशाल बाहु का दे तू,

संग्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।

जयमुकुट पहन, फिर भोग सम्पदा सारी।

"यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है,

रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।

विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ ?

किसको प्रमाण के लिए यहाँ बुलवाऊँ ?

"वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में,

देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,

जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भूत है,

तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।"

रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,

इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,

"कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,

माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।"

यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,

हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।

मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,

वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर।

डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,

कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।

राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,

"तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?

"क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,

माता के तन का मल, अपूत है वह तो।

तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,

अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो।

"मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ

सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।

ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?

मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ?

"है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ

मन छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।

हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,

किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।

"सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,

धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;

माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकुला कर,

पय-पान कराती उर से लगा कर।

"मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है,

दृग से निहार अंग में अमृत भरती है।

पर, मुझे अंक में उठा न ले पायीं तुम,

पय का पहला आहार न दे पायीं तुम।

"उल्टे, मुझको असहाय छोड़ कर जल में,

तुम लौट गयी इज़्ज़त के बड़े महल में।

मैं बचा अगर तो अपने आयुर्बल से,

रक्षा किसने की मेरी काल-कवल से ?

"क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?

जीवन के बदले साफ मृत्यु ही दी थी।

पर, तुमने जब पत्थर का किया कलेजा,

असली माता के पास भाग्य ने भेजा।

"अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,

आख़िरी दाँव पर लगा हुआ जीवन है,

तब प्यार बाँध करके अंचल के पट में,

आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में।

"अपना खोया संसार न तुम पाओगी,

राधा माँ का अधिकार न तुम पाओगी।

छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,

पर, कभी बात यह भी मन में लायी हो ?

"उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,

तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है।

तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,

उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।

"उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से,

तुम सुख गयीं मुझको पाते ही भय से।

पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,

कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।

"तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,

उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।

अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?

माता कह उसके बदलें तुम्हें पुकारूँ ?

"अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,

ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ लिया निज सुख है।

जब भी पिछे की ओर दृष्टि जाती है,

चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।

"आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,

या असमय मेरा जन्म न शील-विहित था !

पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,

मैं जलता ही आया समग्र जीवन में,

"अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना,

भुजबल को मैंने सदा भाग्य

The episode Rashmirathi Pancham Sarg part -1 रश्मीरथी पंचम सर्ग-भाग १ Voice Mohit Mishra from the podcast Aah se Upja Gaan has a duration of 35:20. It was first published 24 Sep 03:53. The cover art and the content belong to their respective owners.

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किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार

साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में

परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3

गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)

हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

खण्ड-2

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

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जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

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किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

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कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।

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है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

खण्ड-3

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है।

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,

बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,

सतलुज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,

अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,

रण में समग्र भारत को ले जाना है ।

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,

गौतम को जयजयकार बोलना होगा।

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।

प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar

प्रणति-1

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

प्रणति-2

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

प्रणति-3

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

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