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Rashmirathi Chaturtha Sarg Full रश्मीरथी चतुर्थ सर्ग सम्पूर्ण Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

36m · Aah se Upja Gaan · 21 Sep 09:21

Karna pays a heavy price for being true to his principles...

4. चतुर्थ सर्ग

प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर बलि देगा ?

तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा ?

हरि के सन्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,

धन्य-धन्य राधेय ! बन्धुता के अद्भुत अभिमानी ।

पर जाने क्यों नियम एक अद्भुत जग में चलता है,

भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है ।

हरिआली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी,

मरु की भूमि मगर। रह जाती है प्यासी की प्यासी ।

और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,

सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है |

नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,

दु:ख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर ।

पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है,

वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बसती है;

जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबराकर ।

दो जग को रोशनी टेक पर अपनी जान गँवाकर ।

नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,

देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है ।

आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतधारी,

हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी ।

'प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,

सबसे बडी जांचच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना ।

अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या ?

करने लगे मोह प्राणों का तो फिर प्रण लेना क्या ?

सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,

तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी ।

पर, महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,

हँस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर-घर है ।

जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,

उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है,

और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,

अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।

यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,

रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है।

किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,

गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?

ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है।

मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।

देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,

रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं।

सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,

बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।

आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,

जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है

दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,

रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,

व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,

पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।

जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,

वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,

जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,

वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।

व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,

जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।

दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,

हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।

ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,

अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।

सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,

सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।

हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,

अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।

मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,

उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।

दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,

एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।

बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,

ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं

वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,

पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी।

रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,

मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था

थी विश्रुत यह बात कर्ण गुणवान और ज्ञानी हैं,

दीनों के अवलम्ब, जगत के सर्वश्रेष्ट दानी हैं ।

जाकर उनसे कहो, पड़ी जिस पर जैसी विपदा हो,

गो, धरती, गज, वाजि मांग लो, जो जितना भी चाहो ।

'नाहीं' सुनी कहां, किसने, कब, इस दानी के मुख से,

धन की कौन बिसात ? प्राण भी दे सकते वह सुख से ।

और दान देने में वे कितने विनम्र रहते हैं !

दीन याचकों से भी कैसे मधुर वचन कहते है ?

करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं भिखारी,

वरन्, मांगते जो कुछ उसके न्यायसिद्ध अधिकारी ।

और उमड़ती है प्रसन्न दृग में कैसी जलधारा,

मानों, सौंप रहे हों हमको ही वे न्यास हमारा ।

युग-युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं,

कल्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं ।

पहले ऐसा दानवीर धरती पर कब आया था ?

इतने अधिक जनों को किसने यह सुख पहुंचाया था ?

और सत्य ही, कर्ण दानहित ही संचय करता था,

अर्जित कर बहु विभव नि:सव, दीनों का घर भरता था ।

गो, धरती, गज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहां जो पाया,

दानवीर ने हृदय खोल कर उसको वहीं लुटाया ।

फहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,

कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का।

श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,

अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी।

तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,

किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से।

व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,

कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया।

एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,

कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को।

कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,

अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा।

हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,

हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को।

किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,

कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था।

विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,

धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे।

पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,

इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला।

कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आओ,

मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ।

अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,

यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है।

'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?

अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?

मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,

याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।

'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,

भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?

आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,

उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर।

'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?

अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।

कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,

तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?

'दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,

नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,

हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,

पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का।

'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?

पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?

मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,

मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ।

गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,

लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,

कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,

नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।

'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,

प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।

आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,

कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।

'लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,

शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं।

सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,

हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।

'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा।

स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा।

किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,

यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।

'क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है,

उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है।

अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,

किस्मत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।'

कहा कर्ण ने, 'वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं,

जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं।

विधि ने क्या था लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं,

बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।

'महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,

किस्मत का पाशा पौरुष से हार पलट जाता है।

और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं,

जगा-जगा कर हमें वही तो रखती निज चंचल हैं।

'आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा?

अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाएगा?

अच्छा, अब उपचार छोड़, बोलिए, आप क्या लेंगे,

सत्य मानिये, जो माँगेंगें आप, वही हम देंगे।

'मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी,

कभी-कभी डोलता समर में किंचित वीर-हृदय भी।

डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,

सब डोलें पर नही डोल सकता है वचन हमारा।'

भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,

'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी।

ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,

महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है।

'मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,

अब तो मैं कुछ लिए बिना भी जा सकता हूँ सुख से।

क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,

और साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ।

'कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँगूंगा,

मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूंगा।

किंतु आपकी कीर्ति-चाँदनी फीकी हो जाएगी,

निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाएगी।

'है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर

The episode Rashmirathi Chaturtha Sarg Full रश्मीरथी चतुर्थ सर्ग सम्पूर्ण Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर' from the podcast Aah se Upja Gaan has a duration of 36:58. It was first published 21 Sep 09:21. The cover art and the content belong to their respective owners.

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किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार

साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में

परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3

गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)

हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

खण्ड-2

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,

भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,

दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;

है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

खण्ड-3

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है।

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,

बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,

सतलुज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,

अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,

रण में समग्र भारत को ले जाना है ।

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,

गौतम को जयजयकार बोलना होगा।

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।

प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar

प्रणति-1

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

प्रणति-2

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

प्रणति-3

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

Some Couplets of Munnavvar Rana. मुन्नव्वर राना की चुनिंदा शायरियाँ

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