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Rashmirathi Tritiya Sarg Part 1 रश्मीरथी तृतीय सर्ग भाग १ Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर' कृष्ण की चेतावनी, Krishna ki Chetavani

9m · Aah se Upja Gaan · 15 Sep 14:41

1

हो गया पूर्ण अज्ञात वास,

पाडंव लौटे वन से सहास,

पावक में कनक-सदृश तप कर,

वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,

नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,

कुछ और नया उत्साह लिये।

सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

शूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग-निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूल नसाने को,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके वीर नर के मग में

खम ठोंक ठेलता है जब नर,

पर्वत के जाते पाँव उखड़।

मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भीतर,

मेंहदी में जैसे लाली हो,

वर्तिका-बीच उजियाली हो।

बत्ती जो नहीं जलाता है

रोशनी नहीं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,

झरती रस की धारा अखण्ड,

मेंहदी जब सहती है प्रहार,

बनती ललनाओं का सिंगार।

जब फूल पिरोये जाते हैं,

हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ?

भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?

अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?

नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?

जिसने न कभी आराम किया,

विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं,

सोते से हमें जगाते हैं,

मन को मरोड़ते हैं पल-पल,

तन को झँझोरते हैं पल-पल।

सत्पथ की ओर लगाकर ही,

जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं,

आराम और रण एक नहीं।

वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,

पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।

वन में प्रसून तो खिलते हैं,

बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,

छाया देता केवल अम्बर,

विपदाएँ दूध पिलाती हैं,

लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।

जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,

वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,

मेरे किशोर! मेरे ताजा!

जीवन का रस छन जाने दे,

तन को पत्थर बन जाने दे।

तू स्वयं तेज भयकारी है,

क्या कर सकती चिनगारी है?

वर्षों तक वन में घूम-घूम,

बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,

सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,

पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।

'दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशिष समाज की ले न सका,

उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-

'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।

'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,

चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,

शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

'भूलोक, अतल, पाताल देख,

गत और अनागत काल देख,

यह देख जगत का आदि-सृजन,

यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,

पहचान, कहाँ इसमें तू है।

'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,

पद के नीचे पाताल देख,

मुट्ठी में तीनों काल देख,

मेरा स्वरूप विकराल देख।

सब जन्म मुझी से पाते हैं,

फिर लौट मुझी में आते हैं।

'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,

साँसों में पाता जन्म पवन,

पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,

हँसने लगती है सृष्टि उधर!

मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,

छा जाता चारों ओर मरण।

'बाँधने मुझे तो आया है,

जंजीर बड़ी क्या लाया है?

यदि मुझे बाँधना चाहे मन,

पहले तो बाँध अनन्त गगन।

सूने को साध न सकता है,

वह मुझे बाँध कब सकता है?

'हित-वचन नहीं तूने माना,

मैत्री का मूल्य न पहचाना,

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,

अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहीं, अब रण होगा,

जीवन-जय या कि मरण होगा।

'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

फण शेषनाग का डोलेगा,

विकराल काल मुँह खोलेगा।

दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

फिर कभी नहीं जैसा होगा।

'भाई पर भाई टूटेंगे,

विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,

सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

आखिर तू भूशायी होगा,

हिंसा का पर, दायी होगा।'

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,

चुप थे या थे बेहोश पड़े।

केवल दो नर ना अघाते थे,

धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,

दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

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किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार

साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में

परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3

गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)

हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

खण्ड-2

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,

भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,

दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;

है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

खण्ड-3

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है।

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,

बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,

सतलुज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,

अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,

रण में समग्र भारत को ले जाना है ।

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,

गौतम को जयजयकार बोलना होगा।

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।

प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar

प्रणति-1

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

प्रणति-2

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

प्रणति-3

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

Some Couplets of Munnavvar Rana. मुन्नव्वर राना की चुनिंदा शायरियाँ

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