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Rashmirathi Dwitiya Sarg Part 1 रश्मीरथी द्वितीय सर्ग भाग १ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

13m · Aah se Upja Gaan · 13 Sep 05:50

This part describes Aashram of Parshuram and his philosophy. A must-listen episode. Have worked hard for it. Have tried to use some new techniques. I hope you all like it.

2. द्वितीय सर्ग

शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,

कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।

जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,

हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।

आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,

शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।

कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,

कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।

हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,

भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,

धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?

झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।

बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,

वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।

सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,

नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?

परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।

कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,

कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,

चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,

कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।

'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन,

हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।

किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,

और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।

'कहते हैं, 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,

मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?

अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,

सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।

'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।

'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।

विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?

कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?

जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?

क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,

मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।

खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,

इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।

और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,

राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,

डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।

औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,

परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।

'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,

और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।

रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,

बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।

'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,

भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।

ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,

और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,

ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।

कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,

धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?

यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।

चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,

जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।

जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।

चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;

पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,

कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,

भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्‌ग की भाषा को।

'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,

ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।

इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो,

हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

'रोज कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्‌ग महाभयकारी है,

इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।

वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,

जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है,

मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।

सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो,

विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,

सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।

'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,

दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,

परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?

पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,

तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,

एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।

निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,

तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,

मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।

गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?

और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,

पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।

और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,

एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?

कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?

धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?

जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?

'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?

सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?

मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,

चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।

'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,

कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,

तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;

नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?

'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,

छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!

हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,

जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'

The episode Rashmirathi Dwitiya Sarg Part 1 रश्मीरथी द्वितीय सर्ग भाग १ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर' from the podcast Aah se Upja Gaan has a duration of 13:31. It was first published 13 Sep 05:50. The cover art and the content belong to their respective owners.

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किसको नमन करूँ मैं - रामधारी सिंह दिनकर Kisko Naman Karun Main-Ramdhari Singh Dinkar

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?

मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?

किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है

मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

Saaye Mein Dhoop-Dushyant kumar साये में धूप - दुष्यंत कुमार

साये में धूप की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें आपकी ख़िदमत में

परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3

गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;

सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)

हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

खण्ड-2

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,

भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,

दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;

है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

खण्ड-3

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।

सामने देश माता का भव्य चरण है,

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,

सारी लपटों का रंग लाल होता है।

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,

बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,

सतलुज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,

अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,

रण में समग्र भारत को ले जाना है ।

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,

गौतम को जयजयकार बोलना होगा।

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।

प्रणति राम धारी सिंह दिनकर pranati by Ramdhari Sinh Dinkar

प्रणति-1

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

छिटकाई जिनने चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रहीं लू लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा ?

साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल ।

कलम, आज उनकी जय बोल ।

प्रणति-2

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

सूख रही है बोटी-बोटी,

मिलती नहीं घास की रोटी,

गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,

शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,

रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी

खोज रही अपनी क़ुर्बानी

जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,

स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,

जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार ।

नमन उन्हें मेरा शत बार ।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा

टिका हुआ है भूतल सारा,

होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,

जीवन का बल-तेज जगा लूँ,

मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार ।

नमन तुम्हें मेरा शत बार ।

प्रणति-3

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

'जय हो', नव होतागण ! आओ,

संग नई आहुतियाँ लाओ,

जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

टूटी नहीं शिला की कारा,

लौट गयी टकरा कर धारा,

सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम ।

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,

मौत चुनौती लिए खड़ी है,

लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?

आनेवालो ! तुम्हें प्रणाम ।

(१९३८ ई०)

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