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Aah se Upja Gaan

by Mohit Mishra

Your weekly dose of Hindi-Hindwi poetry... The goal is to read a poem the way poem should be read. :)

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Episodes

Rashmirathi Pratham Sarg रश्मीरथी प्रथम सर्ग - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

16m · Published 12 Sep 03:56

Recitation and Mixing by me.

Here are the lyrics.

'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,

जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।

किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,

सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,

दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।

क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,

सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,

पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।

हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,

वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,

उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।

सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,

निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,

जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।

ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,

अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,

कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।

निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,

वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।

नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,

अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।

समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,

गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।

जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?

युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?

पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,

फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।

रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,

बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।

कहता हुआ, 'तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?

अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।'

'तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,

चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।

आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,

फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।'

इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,

सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।

मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,

गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।

फिरा कर्ण, त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सकल नर-नारी,

राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद् अति भारी।

द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,

एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, 'वीर! शाबाश !'

द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,

अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा।

कृपाचार्य ने कहा- 'सुनो हे वीर युवक अनजान'

भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।

'क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,

जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?

अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,

नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?'

'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,

कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला

'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,

मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,

शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।

सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?

साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,

पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।

अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,

छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।

'पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से'

रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,

पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश,

मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,

क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।

अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,

अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।'

कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,

साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।

राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,

अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।'

कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,

सह न सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।

बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,

उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।

'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,

धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,

'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया,

अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।

कर्ण भले ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,

मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।

'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,

मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।

बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,

तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।

'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।

एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'

रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,

गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।

कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,

फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।

दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,

मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्‌भ्रान्त?

'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!

अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।'

कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!

वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।

'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,

पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।

उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?

कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'

घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,

होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।

चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,

जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।

लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,

रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।

विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,

जनता विकल पुकार उठी, 'जय महाराज अंगेश।

'महाराज अंगेश!' तीर-सा लगा हृदय में जा के,

विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।

'हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,

सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?'

दुर्योधन ने कहा-'भीम ! झूठे बकबक करते हो,

कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।

बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?

नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।

'सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,

जन्मे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?

अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,

निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।

कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले 'छिः! यह क्या है?

तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?

चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,

थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।'

रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,

कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।

सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,

कहते हुए -'पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?

'जन्मे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,

टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।

एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,

रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।

'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,

मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।

बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्‌भट भट बांल,

अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!

'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,

इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?

शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;

रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'

रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,

चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।

कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,

गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।

बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,

चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।

आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,

विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।

और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,

सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।

उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,

नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

Thank you Aakash Gandhi Ji for Music

https://www.youtube.com/channel/UCGH2igDnkXo_J0A7OxMcJJg

Aah se Upja Gaan has 21 episodes in total of non- explicit content. Total playtime is 7:22:18. The language of the podcast is Hindi. This podcast has been added on July 4th 2022. It might contain more episodes than the ones shown here. It was last updated on April 30th, 2024 17:40.

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