Aah se Upja Gaan cover logo
RSS Feed Apple Podcasts Overcast Castro Pocket Casts

Aah se Upja Gaan

by Mohit Mishra

Your weekly dose of Hindi-Hindwi poetry... The goal is to read a poem the way poem should be read. :)

Copyright: All rights reserved.

Episodes

Rashmirathi Shast Sarg part -2 रश्मीरथी षष्ठ सर्ग-भाग २ By Pandit Ramdhari Singh Dinkar Mohit Mishra

28m · Published 03 Oct 17:40

भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र-धनुधारी सा,

केसरी अभय मगचारी-सा,

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन घनघोर चला।

पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कौरव-सेना का शोक गया,

आशा की नवल तरंग उठी,

जन-जन में नयी उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन।

सेना समग्र हुकांर उठी,

‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,

उल्लास मुक्त हो छहर उठा,

रण-जलधि घोष में घहर उठा,

बज उठी समर-भेरी भीषण,

हो गया शुरू संग्राम गहन।

सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,

विकराल दण्डधर-सा कठोर,

अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा।

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली।

झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को तोड़-मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सब की छूटने लगी,

ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।

प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,

जिस तरह काँपती है कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण,

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,

त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,

मच गयी बड़ी भीषण हलचल।

सब रथी व्यग्र बिललाते थे,

कोलाहल रोक न पाते थे।

सेना का यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधीर हो मधुसूदन,

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।

"दे अचिर सैन्य का अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,

तू नहीं जानता है यह क्या ?

करता न शत्रु पर कर्ण दया ?

दाहक प्रचण्ड इसका बल है,

यह मनुज नहीं, कालानल है।

"बड़वानल, यम या कालपवन,

करते जब कभी कोप भीषण

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है;

कुछ भी न शेष रह पाता है।

बाणों का अप्रतिहत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय,

तू इसे रोक भी पायेगा ?

या खड़ा मूक रह जायेगा।

‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर,

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता है?

पथ उधर स्वयं बन जाता है।

तू नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?

‘अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा,

शैथिल्य प्राण-घातक होगा,

उठ जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

धर धनुष-बाण अपना कठोर।

तू नहीं जोश में आयेगा

आज ही समर चुक जायेगा।"

केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों चिग्घार पहाड़ उठा।

बाणों की फिर लग गयी झड़ी,

भागती फौज हो गयी खड़ी।

जूझने लगे कौन्तेय-कर्ण,

ज्यों लड़े परस्पर दो सुपर्ण।

एक ही वृम्त के को कुड्मल, एक की कुक्षि के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।

अन्धड़ बन कर उन्माद उठा,

दोनों दिशि जयजयकार हुई।

दोनों पक्षों के वीरों पर,

मानो, भैरवी सवार हुई।

कट-कट कर गिरने लगे क्षिप्र,

रूण्डों से मुण्ड अलग होकर,

बह चली मनुज के शोणित की

धारा पशुओं के पग धोकर।

लेकिन, था कौन, हृदय जिसका,

कुछ भी यह देख दहलता था ?

थो कौन, नरों की लाशों पर,

जो नहीं पाँव धर चलता था ?

तन्वी करूणा की झलक झीन

किसको दिखलायी पड़ती थी ?

किसको कटकर मरनेवालों की

चीख सुनायी पड़ती थी ?

केवल अलात का घूर्णि-चक्र,

केवल वज्रायुध का प्रहार,

केवल विनाशकारी नत्र्तन,

केवल गर्जन, केवल पुकार।

है कथा, द्रोण की छाया में

यों पाँच दिनों तक युद्ध चला,

क्या कहें, धर्म पर कौन रहा,

या उसके कौन विरूद्ध चला ?

था किया भीष्म पर पाण्डव ने,

जैसे छल-छद्मों से प्रहार,

कुछ उसी तरह निष्ठुरता से

हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !

फिर भी, भावुक कुरूवृद्ध भीष्म,

थे युग पक्षों के लिए शरण,

कहते हैं, होकर विकल,

मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।

अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु

अब तक भी हृदय हिलाती है,

सभ्यता नाम लेकर उसका

अब भी रोती, पछताती है।

पर, हाय, युद्ध अन्तक-स्वरूप,

अन्तक-सा ही दारूण कठोर,

देखता नहीं ज्यायान्-युवा,

देखता नहीं बालक-किशोर।

सुत के वध की सुन कथा पार्थ का,

दहक उठा शोकात्र्त हृदय,

फिर किया क्रुद्ध होकर उसने,

तब महा लोम-हर्षक निश्चय,

‘कल अस्तकाल के पूर्व जयद्रथ

को न मार यदि पाऊँ मैं,

सौगन्ध धर्म की मुझे, आग में

स्वयं कूद जल जाऊँ मैं।’

तब कहते हैं अर्जुन के हित,

हो गया प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,

माया की सहसा शाम हुई,

असमय दिनेश हो गये अस्त।

ज्यों त्यों करके इस भाँति वीर

अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,

सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक

निर्दोष पिता का चुर्ण हुआ।

हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से,

जब निपट रहा था भूरिश्रवा,

पार्थ ने काट ली, अनाहूत,

शर से उसकी दाहिनी भुजा।

औ‘ भूरिश्रवा अनशन करके,

जब बैठ गया लेकर मुनि-व्रत,

सात्यकि ने मस्तक काट लिया,

जब था वह निश्चल, योग-निरत।

है वृथा धर्म का किसी समय,

करना विग्रह के साथ ग्रथन,

करूणा से कढ़ता धर्म विमल,

है मलिन पुत्र हिंसा का रण।

जीवन के परम ध्येय-सुख-को

सारा समाज अपनाता है,

देखना यही है कौन वहाँ

तक किस प्रकार से जाता है ?

है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो

जीवन भर चलने में है।

फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति

दीपक समान जलने में है।

यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त

हो जाती परतापी को भी,

सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;

मिल जाते है पापी को भी।

इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो

सदा निहित, साधन में है,

वह नहीं सिकी भी प्रधन-कर्म,

हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म,

समझे मनुष्य संहारों को,

गूँथना चाहते वे, फूलों के

साथ तप्त अंगारों को।

हो जिसे धर्म से प्रेम कभी

वह कुत्सित कर्म करेगा क्या ?

बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर

मारेगा और मरेगा क्या ?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी

तक भी खोटे के खोटे हैं,

हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर

लेकिन, छोटे के छोटे हैं।

संग्राम धर्मगुण का विशेष्य

किस तरह भला हो सकता है ?

कैसे मनुष्य अंगारों से

अपना प्रदाह धो सकता है ?

सर्पिणी-उदर से जो निकला,

पीयूष नहीं दे पायेगा,

निश्छल होकर संग्राम धर्म का

साथ न कभी निभायेगा।

मानेगा यह दंष्ट्री कराल

विषधर भुजंग किसका यन्त्रण ?

पल-पल अति को कर धर्मसिक्त

नर कभी जीत पाया है रण ?

जो ज़हर हमें बरबस उभार,

संग्राम-भूमि में लाता है,

सत्पथ से कर विचलित अधर्म

की ओर वही ले जाता है।

साधना को भूल सिद्धि पर जब

टकटकी हमारी लगती है,

फिर विजय छोड़ भावना और

कोई न हृदय में जगती है।

तब जो भी आते विघ्न रूप,

हो धर्म, शील या सदाचार,

एक ही सदृश हम करते हैं

सबके सिर पर पाद-प्रहार।

उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,

होती है इन्हें कुचलने में,

जितनी होती है रोज़ कंकड़ो

के ऊपर हो चलने में।

सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे

नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?

जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,

छोटी बातों का ध्यान करे ?

चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,

जानता नहीं, क्या करता है,

नीच पथ में है कौन ? पाँव

जिसके मस्तक पर धरता है।

काटता शत्रु को वह लेकिन,

साथ ही धर्म कट जाता है,

फाड़ता विपक्षी को अन्तर

मानवता का फट जाता है।

वासना-वह्नि से जो निकला,

कैसे हो वह संयुग कोमल ?

देखने हमें देगा वह क्यों,

करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?

जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,

माँड़ी बन कर छा जाता है

तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े

दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।

फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव

भी नहीं धर्म के साथ रहे ?

जो रंग युद्ध का है, उससे,

उनके भी अलग न हाथ रहे।

दोनों ने कालिख छुई शीश पर,

जय का तिलक लगाने को,

सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,

विजय-विन्दु तक जाने को।

इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के

दाहक कई दिवस बीते;

पर, विजय किसे मिल सकती थी,

जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?

था कौन सत्य-पथ पर डटकर,

जो उनसे योग्य समर करता ?

धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,

अपना नाम अमर करता ?

था कौन, देखकर उन्हें समर में

जिसका हृदय न कँपता था ?

मन ही मन जो निज इष्ट देव का

भय से नाम न जपता था ?

कमलों के वन को जिस प्रकार

विदलित करते मदकल कुज्जर,

थे विचर रहे पाण्डव-दल में

त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।

संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त,

सारे जीवन से छला हुआ,

राधेय पाण्डवों के ऊपर

दारूण अमर्ष से जला हुआ;

इस तरह शत्रुदल पर टूटा,

जैसे हो दावानल अजेय,

या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से

उतर मनुज पर कात्र्तिकेय।

संघटित या कि उनचास मरूत

कर्ण के प्राण में छाये हों,

या कुपित सूय आकाश छोड़

नीचे भूतल पर आये हों।

अथवा रण में हो गरज रहा

धनु लिये अचल प्रालेयवान,

या महाकाल बन टूटा हो

भू पर ऊपर से गरूत्मान।

बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,

हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,

जल उठी कर्ण के पौरूष की

कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।

दिग्गज-दराज वीरों की भी

छाती प्रहार से उठी हहर,

सामने प्रलय को देख गये

गजराजों के भी पाँव उखड़।

जन-जन के जीवन पर कराल,

दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,

पाण्डव-सेना का हृास देख

केशव का वदन विवर्ण हुआ।

सोचने लगे, छूटेंगे क्या

सबके विपन्न आज ही प्राण ?

सत्य ही, नहीं क्या है कोई

इस कुपित प्रलय का समाधान ?

"है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?"

राधेय गरजता था क्षण-क्षण।

"करता क्यों नही प्रकट होकर,

अपने कराल प्रतिभट से रण ?

क्या इन्हीं मूलियों से मेरी

रणकला निबट रह जायेगी ?

या किसी वीर पर भी अपना,

वह चमत्कार दिखलायेगी ?

"हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,

अब हाथ समेटे लेता हूँ,

सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,

मैं उसे चुनौती देता हूँ।

हिम्मत हो तो वह बढ़े,

व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,

दे मुझे जन्म का लाभ और

साहस हो तो खुद भी पाये।"

पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,

रथ अलग नचाये फिरते थे,

कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,

शिष्य को बचाये फिरते थे।

Rashmirathi Shasht Sarg part -1 रश्मीरथी षष्ठ सर्ग-भाग १ by Pandit Shri Ramdhari Singh Dinkar Voice Mohit Mishra

9m · Published 30 Sep 03:43

नरता कहते हैं जिसे, सत्तव

क्या वह केवल लड़ने में है ?

पौरूष क्या केवल उठा खड्ग

मारने और मरने में है ?

तब उस गुण को क्या कहें

मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ?

लेकिन, तक भी मारता नहीं,

वह स्वंय विश्व-हित मरता है।

है वन्दनीय नर कौन ? विजय-हित

जो करता है प्राण हरण ?

या सबकी जान बचाने को

देता है जो अपना जीवन ?

चुनता आया जय-कमल आज तक

विजयी सदा कृपाणों से,

पर, आह निकलती ही आयी

हर बार मनुज के प्राणों से।

आकुल अन्तर की आह मनुज की

इस चिन्ता से भरी हुई,

इस तरह रहेगी मानवता

कब तक मनुष्य से डरी हुई ?

पाशविक वेग की लहर लहू में

कब तक धूम मचायेगी ?

कब तक मनुष्यता पशुता के

आगे यों झुकती जायेगी ?

यह ज़हर ने छोड़ेगा उभार ?

अंगार न क्या बूझ पायेंगे ?

हम इसी तरह क्या हाय, सदा

पशु के पशु ही रह जायेंगे ?

किसका सिंगार ? किसकी सेवा ?

नर का ही जब कल्याण नहीं ?

किसके विकास की कथा ? जनों के

ही रक्षित जब प्राण नहीं ?

इस विस्मय का क्या समाधान ?

रह-रह कर यह क्या होता है ?

जो है अग्रणी वही सबसे

आगे बढ़ धीरज खोता है।

फिर उसकी क्रोधाकुल पुकार

सबको बेचैन बनाती है,

नीचे कर क्षीण मनुजता को

ऊपर पशुत्व को लाती है।

हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड

लघु है, अब भी कुछ रीता है,

वय अधिक आज तक व्यालों के

पालन-पोषण में बीता है।

ये व्याल नहीं चाहते, मनुज

भीतर का सुधाकुण्ड खोले,

जब ज़हर सभी के मुख में हो

तब वह मीठी बोली बोले।

थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का

मन शीतल कर सकती है,

बाहर की अगर नहीं, पीड़ा

भीतर की तो हर सकती है।

लेकिन धीरता किसे ? अपने

सच्चे स्वरूप का ध्यान करे,

जब ज़हर वायु में उड़ता हो

पीयूष-विन्दू का पान करे।

पाण्डव यदि पाँच ग्राम

लेकर सुख से रह सकते थे,

तो विश्व-शान्ति के लिए दुःख

कुछ और न क्या कह सकते थे ?

सुन कुटिल वचन दुर्योधन का

केशव न क्यों यह का नहीं-

"हम तो आये थे शान्ति हेतु,

पर, तुम चाहो जो, वही सही।

"तुम भड़काना चाहते अनल

धरती का भाग जलाने को,

नरता के नव्य प्रसूनों को

चुन-चुन कर क्षार बनाने को।

पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहाग

पर आग नहीं धरने दूँगा,

जब तक जीवित हूँ, तुम्हें

बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।

"लो सुखी रहो, सारे पाण्डव

फिर एक बार वन जायेंगे,

इस बार, माँगने को अपना

वे स्वत्तव न वापस आयेंगे।

धरती की शान्ति बचाने को

आजीवन कष्ट सहेंगे वे,

नूतन प्रकाश फैलाने को

तप में मिल निरत रहेंगे वे।

शत लक्ष मानवों के सम्मुख

दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?

यदि शान्ति विश्व की बचती हो,

वन में बसने में दुख क्या है ?

सच है कि पाण्डूनन्दन वन में

सम्राट् नहीं कहलायेंगे,

पर, काल-ग्रन्थ में उससे भी

वे कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।

"होकर कृतज्ञ आनेवाला युग

मस्तक उन्हें झुकायेगा,

नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति

संसार युगों तक गायेगा।

सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का

कर सकते, त्यागी होकर,

मानव-समाज का नयन मनुज

कर सकता वैरागी होकर।"

पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं

होता क्या ऐसा कहने से ?

प्रतिकार अनय का हो सकता।

क्या उसे मौन हो सहने से ?

क्या वही धर्म, लौ जिसकी

दो-एक मनों में जलती है।

या वह भी जो भावना सभी

के भीतर छिपी मचलती है।

सबकी पीड़ा के साथ व्यथा

अपने मन की जो जोड़ सके,

मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे

निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके।

युगपुरूष वही सारे समाज का

विहित धर्मगुरू होता है,

सबके मन का जो अन्धकार

अपने प्रकाश से धोता है।

द्वापर की कथा बड़ी दारूण,

लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ?

नर के वध की प्रक्रिया बढ़ी

कुछ और उसे आसान किया।

पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था,

वह आज निन्द्य-सा लगता है।

बस, इसी मन्दता के विकास का

भाव मनुज में जगता है।

धीमी कितनी गति है ? विकास

कितना अदृश्य हो चलता है ?

इस महावृक्ष में एक पत्र

सदियों के बाद निकलता है।

थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व,

लगता है वहीं खड़े हैं हम।

है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से

कुछ बहुत बड़े हैं हम।

अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो

किटकिटा नखों से, दाँतों से,

या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित

वज्रीकृत हाथों से;

या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से

गोलों की वृष्टि करो,

आ जाय लक्ष्य में जो कोई,

निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।

ये तो साधन के भेद, किन्तु

भावों में तत्व नया क्या है ?

क्या खुली प्रेम आँख अधिक ?

भतीर कुछ बढ़ी दया क्या है ?

झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,

पशुता का झरना बाकी है;

बाहर-बाहर तन सँवर चुका,

मन अभी सँवरना बाकी है।

देवत्व अल्प, पशुता अथोर,

तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,

द्वापर के मन पर भी प्रसरित

थी यही, आज वाली, द्वाभा।

बस, इसी तरह, तब भी ऊपर

उठने को नर अकुलाता था,

पर पद-पद पर वासना-जाल में

उलझ-उलझ रह जाता था।

औ’ जिस प्रकार हम आज बेल-

बूटों के बीच खचित करके,

देते हैं रण को रम्य रूप

विप्लवी उमंगों में भरके;

कहते, अनीतियों के विरूद्ध

जो युद्ध जगत में होता है,

वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का

बड़ा सलोना सोता है।

बस, इसी तरह, कहता होगा

द्वाभा-शासित द्वापर का नर,

निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु,

है महामोक्ष का द्वार समर।

सत्य ही, समुन्नति के पथ पर

चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,

कहता है क्रान्ति उसे, जिसको

पहले कहता था धर्मयुद्ध।

सो, धर्मयुद्ध छिड़ गया, स्वर्ग

तक जाने के सोपान लगे,

सद्गतिकामी नर-वीर खड्ग से

लिपट गँवाने प्राण लगे।

छा गया तिमिर का सघन जाल,

मुँद गये मनुज के ज्ञान-नेत्र,

द्वाभा की गिरा पुकार उठी,

"जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरूक्षेत्र !"

हाँ, धर्मक्षेत्र इसलिए कि बन्धन

पर अबन्ध की जीत हुई,

कत्र्तव्यज्ञान पीछे छूटा,

आगे मानव की प्रीत हुई।

प्रेमातिरेक में केशव ने

प्रण भूल चक्र सन्धान किया,

भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से

अपना जीवन दान दिया।

Rashmirathi Pancham Sarg part -2 रश्मीरथी पंचम सर्ग-भाग २ Voice Mohit Mishra

11m · Published 28 Sep 04:24

you can also find me on my youtube channel

https://www.youtube.com/channel/UCOmnt0xo6H3nt3ZXOloTCPQ

पहली वर्षा में मही भींगती जैसे,

भींगता रहा कुछ काल कर्ण भी वैसे।

फिर कण्ठ छोड़ बोला चरणों पर आकर,

"मैं धन्य हुआ बिछुड़ी गोदी को पाकर।

पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं,

माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।

अतएव, न्यास अंचल का ले ने सकूँगा,

पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँगा।

"की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा,

जाने दूँ कैसे लेकर तुम्हें निराशा ?

लेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्यागो,

बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँगो।

‘केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है,

सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।

छीनो सुयोग मत, मुझे अंक में लेकर,

यश, मुकुट, मान, कुल, जाति, प्रतिष्ठा देकर।

"विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,

बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।

कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँगा,

अप्रतिम वीर वसुधा पर कहलाऊँगा।

"आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,

रण में खुलकर मारने और मरने की।

इस समय नहीं मुझमें शैथिल्य भरो तुम,

जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।

"अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ?

क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँगा ?

मेरा चरित्र फिर कौन समझ पायेगा ?

सारा जीवन ही उलट-पलट जायेगा।

"तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,

पुत्र ही रहेगा सदा जगत् में दाता ?

दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ लेगी,

पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी ?

"मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ,

बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ।

छोडूँगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,

तोड़ूँगा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?

"पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,

पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।

अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,

पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।"

कुन्ती बोली, "रे हठी, दिया क्या तू ने ?

निज को लेकर ले नहीं किया तू ने ?

बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,

रह गया वाम का, पर, वाम ही विधाता।

"पाकर न एक को, और एक को खोकर,

मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।"

कह उठा कर्ण, "छह और चार को भूलो,

माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।

"जीते जी भी यह समर झेल दुख भारी,

लेकिन होगी माँ ! अन्तिम विजय तुम्हारी।

रण में कट मर कर जो भी हानि सहेंगे,

पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहेंगे।

"कुरूपति न जीत कर निकला अगर समर से,

या मिली वीरगति मुझे पार्थ के कर से,

तुम इसी तरह गोदी की धनी रहोगी,

पुत्रिणी पाँच पुत्रों की बनी रहोगी।

"पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता,

वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता,

मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा,

जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा।

"जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,

जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,

यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं

विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।

"सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है,

पर, केशव जिनके साथ, उन्हें क्या दुख है ?

उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूँगा ?

है कौन त्रास, केवल मैं जिसे हरूँगा ?

"हाँ अगर पाण्डवों की न चली इस रण में,

वे हुए हतप्रभ किसी तरह जीवन में,

राधेय न कुरूपति का सह-जेता होगा,

वह पुनः निःस्व दलितों का नेता होगा।

"है अभी उदय का लग्न, दृश्य सुन्दर है,

सब ओर पाण्डु-पुत्रों की कीर्ति प्रखर है।

अनुकूल ज्योति की घड़ी न मेरी होगी,

मैं आऊँगा जब रात अन्धेरी होगी।

"यश, मान, प्रतिष्ठा, मुकुट नहीं लेने को,

आऊँगा कुल को अभयदान देने को।

परिभव, प्रदाह, भ्रम, भय हरने आऊँगा,

दुख में अनुजों को भुज भरने आऊँगा।

"भीषण विपत्ति में उन्हें जननि ! अपनाकर,

बाँटने दुःख आऊँगा हृदय लगाकर।

तम में नवीन आभा भरने आऊँगा,

किस्मत को फिर ताजा करने आऊँगा।

"पर नहीं, कृष्ण के कर की छाँह जहाँ है,

रक्षिका स्वयं अच्युत की बाँह जहाँ है,

उस भाग्यवान का भाग्य क्षार क्यों होगा ?

सामने किसी दिन अन्धकार क्यों होगा ?

"मैं देख रहा हूँ कुरूक्षेत्र के रण को,

नाचते हुए, मनुजो पर, महामरण को।

शोणित से सारी मही, क्लिन्न, लथपथ है,

जा रहा किन्तु, निर्बाध पार्थ का रथ है।

"हैं काट रहे हरि आप तिमिर की कारा,

अर्जुन के हित बह रही उलट कर धारा।

शत पाश व्यर्थ रिपु का दल फैलाता है,

वह जाल तोड़ कर हर बार निकल जाता है।

"मैं देख रहा हूँ जननि ! कि कल क्या होगा,

इस महासमर का अन्तिम फल क्या होगा ?

लेकिन, तब भी मन तनिक न घबराता है,

उत्साह और दुगुना बढ़ता जाता है।

"बज चुका काल का पटह, भयानक क्षण है,

दे रहा निमन्त्रण सबको महामरण है।

छाती के पूरे पुरूष प्रलय झेलेंगे,

झंझा की उलझी लटें खींच खेलेंगे।

"कुछ भी न बचेगा शेष अन्त में जाकर,

विजयी होगा सन्तुष्ट तत्व क्या पाकर ?

कौरव विलीन जिस पथ पर हो जायेंगे,

पाण्डव क्या उससे भिन्न राह पायेंगे ?

"है एक पन्थ कोई जीत या हारे,

खुद मरे, या कि, बढ़कर दुश्मन को मारे।

एक ही देश दोनों को जाना होगा,

बचने का कोई नहीं बहाना होगा।

"निस्सार द्रोह की क्रिया, व्यर्थ यह रण है,

खोखला हमारा और पार्थ का प्रण है।

फिर भी जानें किसलिए न हम रूकते हैं

चाहता जिधर को काल, उधर को झुकतें हैं।

"जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी गति है,

कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है।

बहती प्रचण्डता से सबको अपनाकर,

सहसा खो जाती महासिन्धु को पाकर।

"फिर लहर, धार, बुद्बुद् की नहीं निशानी,

सबकी रह जाती केवल एक कहानी।

सब मिल हो जाते विलय एक ही जल में,

मूर्तियाँ पिघल मिल जातीं धातु तरल में।

"सो इसी पुण्य-भू कुरूक्षेत्र में कल से,

लहरें हो एकाकार मिलेंगी जल से।

मूर्तियाँ खूब आपस में टकरायेंगी,

तारल्य-बीच फिर गलकर खो जायेंगी।

"आपस में हों हम खरे याकि हों खोटे,

पर, काल बली के लिए सभी हैं छोटे,

छोटे होकर कल से सब साथ मरेंगे,

शत्रुता न जानें कहाँ समेट धरेंगे ?

"लेकिन, चिन्ता यह वृथा, बात जाने दो,

जैसा भी हो, कल कल का प्रभाव आने दो

दीखती किसी भी तरफ न उजियाली है,

सत्य ही, आज की रात बड़ी काली है।

"चन्द्रमा-सूर्य तम में जब छिप जाते हैं,

किरणों के अन्वेषी जब अकुलाते हैं,

तब धूमकेतु, बस, इसी तरह आता है,

रोशनी जरा मरघट में फैलाता है।"

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर,

दो बिन्दू अश्रु के गिर दृगों से चूकर।

बेटे का मस्तक सूँघ, बड़े ही दुख से,

कुन्ती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।

Rashmirathi Pancham Sarg part -1 रश्मीरथी पंचम सर्ग-भाग १ Voice Mohit Mishra

35m · Published 24 Sep 03:53

Kunti Meets Karna

आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,

निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का ।

हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,

कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी ।

कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,

रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी ।

संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,

सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा ।

जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,

परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा ।

कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,

नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे ।

सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,

कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में ।

'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?

सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?

'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,

सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?

सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,

अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?

दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,

जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,

पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,

बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?

'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?

समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?

हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,

है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?

गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,

धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं ।

तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?

मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,

गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी ।

तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं

सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं ।

लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?

किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?

माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है

बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है ।

क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?

उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?

किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,

इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,

बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से ।

सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,

सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर ।

उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,

सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी ।

आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,

कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी ।

दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,

थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर ।

लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,

खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे ।

राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,

था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये ।

तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,

दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था ।

मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,

हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर ।

अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,

हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले ।

या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,

हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,

अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,

मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर ।

सुत की शोभा को देख मोद में फूली,

कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली ।

भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,

वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को ।

आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला,

कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला,

"पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ,

राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ

"हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आयी हैं ?

मेरे निमित्त आदेश कौन लायी हैं ?

यह कुरूक्षेत्र की भूमि, युद्ध का स्थल है,

अस्तमित हुआ चाहता विभामण्डल है।

"सूना, औघट यह घाट, महा भयकारी,

उस पर भी प्रवया आप अकेली नारी।

हैं कौन ? देवि ! कहिये, क्या काम करूँ मैं ?

क्या भक्ति-भेंट चरणों पर आन धरूँ मैं ?

सुन गिरा गूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा,

भीतर का क्लेश अपार अश्रु बन फूटा।

विगलित हो उसने कहा काँपते स्वर से,

"रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारूण शर से।

"राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है,

जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है।

तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है,

अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।

"जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया,

तू उसी तरह था प्रथम कुक्षि में आया।

पा तुझे धन्य थी हुई गोद यह मेरी,

मैं ही अभागिनी पृथा जननि हूँ तेरी।

"पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था,

अनमोल लाल मैंने असमय पाया था।

अतएव, हाय ! अपने दुधमुँहे तनय से,

भागना पड़ा मुझको समाज के भय से

"बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी,

अबला होती, सममुच, योषिता कुमारी।

है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,

सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।

"उस पर भी बाल अबोध, काल बचपन का,

सूझा न शोध मुझको कुछ और पतन का।

मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,

धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।

"संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला,

उन दयामयी पर तनिक न मुझे कसाला।

ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी,

अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।

"पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,

आदेश नहीं, प्रार्थना साथ लायी हूँ।

कल कुरूक्षेत्र में जो संग्राम छिड़ेगा,

क्षत्रिय-समाज पर कल जो प्रलय घिरेगा।

"उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो लड़ तू,

मत उन्हें मार, या उनके हाथों मत तू।

मेरे ही सुत मेरे सुत को ह मारें;

हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।

"यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा,

अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा।

जो छिपकर थी अबतक कुरेदती मन को,

बतला दूँगी वह व्यथा समग्र भुवन को।

भागी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय से,

फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से,

उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँगी,

डर चुकी बहुत, अब और न अधिक डरूँगी।

"थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ,

मरने के पहले तुँझे अंक में भर लूँ।

वह समय आज रण के मिस से आया है,

अवसर मैंने भी क्या अद्भुत पाया है !

बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही,

लेकिन, विरंचि निकला कितना निर्मोही !

तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने,

यह गोपन जन्म-रहस्य तुझे बतलाने।

"पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,

यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,

अब दौड़ वत्स ! गोदी में वापस आ तू,

आ गया निकट विध्वंस, न देर लगा तू।

"जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,

रे कर्ण ! समर में अब मारेगा किसको ?

पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही है

अग्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है।

"नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू,

अनुजों पर छत्र विशाल बाहु का दे तू,

संग्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।

जयमुकुट पहन, फिर भोग सम्पदा सारी।

"यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है,

रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।

विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ ?

किसको प्रमाण के लिए यहाँ बुलवाऊँ ?

"वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में,

देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,

जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भूत है,

तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।"

रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,

इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,

"कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,

माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।"

यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,

हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।

मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,

वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर।

डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,

कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।

राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,

"तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?

"क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,

माता के तन का मल, अपूत है वह तो।

तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,

अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो।

"मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ

सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।

ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?

मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ?

"है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ

मन छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।

हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,

किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।

"सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,

धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;

माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकुला कर,

पय-पान कराती उर से लगा कर।

"मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है,

दृग से निहार अंग में अमृत भरती है।

पर, मुझे अंक में उठा न ले पायीं तुम,

पय का पहला आहार न दे पायीं तुम।

"उल्टे, मुझको असहाय छोड़ कर जल में,

तुम लौट गयी इज़्ज़त के बड़े महल में।

मैं बचा अगर तो अपने आयुर्बल से,

रक्षा किसने की मेरी काल-कवल से ?

"क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?

जीवन के बदले साफ मृत्यु ही दी थी।

पर, तुमने जब पत्थर का किया कलेजा,

असली माता के पास भाग्य ने भेजा।

"अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,

आख़िरी दाँव पर लगा हुआ जीवन है,

तब प्यार बाँध करके अंचल के पट में,

आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में।

"अपना खोया संसार न तुम पाओगी,

राधा माँ का अधिकार न तुम पाओगी।

छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,

पर, कभी बात यह भी मन में लायी हो ?

"उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,

तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है।

तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,

उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।

"उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से,

तुम सुख गयीं मुझको पाते ही भय से।

पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,

कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।

"तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,

उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।

अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?

माता कह उसके बदलें तुम्हें पुकारूँ ?

"अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,

ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ लिया निज सुख है।

जब भी पिछे की ओर दृष्टि जाती है,

चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।

"आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,

या असमय मेरा जन्म न शील-विहित था !

पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,

मैं जलता ही आया समग्र जीवन में,

"अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना,

भुजबल को मैंने सदा भाग्य

Rashmirathi Chaturtha Sarg Full रश्मीरथी चतुर्थ सर्ग सम्पूर्ण Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

36m · Published 21 Sep 09:21

Karna pays a heavy price for being true to his principles...

4. चतुर्थ सर्ग

प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर बलि देगा ?

तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा ?

हरि के सन्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,

धन्य-धन्य राधेय ! बन्धुता के अद्भुत अभिमानी ।

पर जाने क्यों नियम एक अद्भुत जग में चलता है,

भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है ।

हरिआली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी,

मरु की भूमि मगर। रह जाती है प्यासी की प्यासी ।

और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,

सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है |

नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,

दु:ख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर ।

पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है,

वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बसती है;

जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबराकर ।

दो जग को रोशनी टेक पर अपनी जान गँवाकर ।

नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,

देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है ।

आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतधारी,

हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी ।

'प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,

सबसे बडी जांचच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना ।

अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या ?

करने लगे मोह प्राणों का तो फिर प्रण लेना क्या ?

सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,

तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी ।

पर, महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,

हँस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर-घर है ।

जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,

उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है,

और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,

अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।

यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,

रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है।

किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,

गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?

ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है।

मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।

देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,

रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं।

सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,

बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।

आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,

जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है

दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,

रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,

व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,

पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।

जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,

वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,

जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,

वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।

व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,

जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।

दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,

हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।

ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,

अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।

सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,

सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।

हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,

अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।

मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,

उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।

दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,

एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।

बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,

ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं

वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,

पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी।

रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,

मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था

थी विश्रुत यह बात कर्ण गुणवान और ज्ञानी हैं,

दीनों के अवलम्ब, जगत के सर्वश्रेष्ट दानी हैं ।

जाकर उनसे कहो, पड़ी जिस पर जैसी विपदा हो,

गो, धरती, गज, वाजि मांग लो, जो जितना भी चाहो ।

'नाहीं' सुनी कहां, किसने, कब, इस दानी के मुख से,

धन की कौन बिसात ? प्राण भी दे सकते वह सुख से ।

और दान देने में वे कितने विनम्र रहते हैं !

दीन याचकों से भी कैसे मधुर वचन कहते है ?

करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं भिखारी,

वरन्, मांगते जो कुछ उसके न्यायसिद्ध अधिकारी ।

और उमड़ती है प्रसन्न दृग में कैसी जलधारा,

मानों, सौंप रहे हों हमको ही वे न्यास हमारा ।

युग-युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं,

कल्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं ।

पहले ऐसा दानवीर धरती पर कब आया था ?

इतने अधिक जनों को किसने यह सुख पहुंचाया था ?

और सत्य ही, कर्ण दानहित ही संचय करता था,

अर्जित कर बहु विभव नि:सव, दीनों का घर भरता था ।

गो, धरती, गज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहां जो पाया,

दानवीर ने हृदय खोल कर उसको वहीं लुटाया ।

फहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,

कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का।

श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,

अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी।

तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,

किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से।

व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,

कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया।

एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,

कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को।

कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,

अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा।

हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,

हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को।

किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,

कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था।

विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,

धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे।

पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,

इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला।

कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आओ,

मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ।

अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,

यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है।

'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?

अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?

मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,

याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।

'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,

भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?

आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,

उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर।

'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?

अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।

कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,

तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?

'दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,

नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,

हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,

पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का।

'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?

पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?

मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,

मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ।

गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,

लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,

कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,

नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।

'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,

प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।

आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,

कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।

'लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,

शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं।

सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,

हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।

'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा।

स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा।

किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,

यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।

'क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है,

उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है।

अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,

किस्मत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।'

कहा कर्ण ने, 'वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं,

जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं।

विधि ने क्या था लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं,

बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।

'महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,

किस्मत का पाशा पौरुष से हार पलट जाता है।

और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं,

जगा-जगा कर हमें वही तो रखती निज चंचल हैं।

'आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा?

अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाएगा?

अच्छा, अब उपचार छोड़, बोलिए, आप क्या लेंगे,

सत्य मानिये, जो माँगेंगें आप, वही हम देंगे।

'मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी,

कभी-कभी डोलता समर में किंचित वीर-हृदय भी।

डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,

सब डोलें पर नही डोल सकता है वचन हमारा।'

भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,

'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी।

ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,

महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है।

'मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,

अब तो मैं कुछ लिए बिना भी जा सकता हूँ सुख से।

क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,

और साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ।

'कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँगूंगा,

मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूंगा।

किंतु आपकी कीर्ति-चाँदनी फीकी हो जाएगी,

निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाएगी।

'है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर

Rashmirathi Tritiya Sarg Part 2 रश्मीरथी तृतीय सर्ग भाग २ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर

18m · Published 18 Sep 12:45

भगवान सभा को छोड़ चले,

करके रण गर्जन घोर चले

सामने कर्ण सकुचाया सा,

आ मिला चकित भरमाया सा

हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,

ले चढ़े उसे अपने रथ पर।

रथ चला परस्पर बात चली,

शम-दम की टेढी घात चली,

शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,

अब शेष नही कोई उपाय

हो विवश हमें धनु धरना है,

क्षत्रिय समूह को मरना है।

"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?

विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?

पर, दुर्योधन मतवाला है,

कुछ नहीं समझने वाला है

चाहिए उसे बस रण केवल,

सारी धरती कि मरण केवल

"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,

क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?

वह भी कौरव को भारी है,

मति गई मूढ़ की मरी है

दुर्योधन को बोधूं कैसे?

इस रण को अवरोधूं कैसे?

"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,

रण में जब काल प्रकट होगा?

बाहर शोणित की तप्त धार,

भीतर विधवाओं की पुकार

निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,

बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे।

"चिंता है, मैं क्या और करूं?

शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?

सब राह बंद मेरे जाने,

हाँ एक बात यदि तू माने,

तो शान्ति नहीं जल सकती है,

समराग्नि अभी तल सकती है।

"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,

तू एकमात्र उसका जीवन

तेरे बल की है आस उसे,

तुझसे जय का विश्वास उसे

तू संग न उसका छोडेगा,

वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?

"क्या अघटनीय घटना कराल?

तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,

बन सूत अनादर सहता है,

कौरव के दल में रहता है,

शर-चाप उठाये आठ प्रहार,

पांडव से लड़ने हो तत्पर।

"माँ का सनेह पाया न कभी,

सामने सत्य आया न कभी,

किस्मत के फेरे में पड़ कर,

पा प्रेम बसा दुश्मन के घर

निज बंधू मानता है पर को,

कहता है शत्रु सहोदर को।

"पर कौन दोष इसमें तेरा?

अब कहा मान इतना मेरा

चल होकर संग अभी मेरे,

है जहाँ पाँच भ्राता तेरे

बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,

हम मिलकर मोद मनाएंगे।

"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,

बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ

मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,

तेरा अभिषेक करेंगे हम

आरती समोद उतारेंगे,

सब मिलकर पाँव पखारेंगे।

"पद-त्राण भीम पहनायेगा,

धर्माचिप चंवर डुलायेगा

पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,

सहदेव-नकुल अनुचर होंगे

भोजन उत्तरा बनायेगी,

पांचाली पान खिलायेगी

"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !

आनंद-चमत्कृत जग होगा

सब लोग तुझे पहचानेंगे,

असली स्वरूप में जानेंगे

खोयी मणि को जब पायेगी,

कुन्ती फूली न समायेगी।

"रण अनायास रुक जायेगा,

कुरुराज स्वयं झुक जायेगा

संसार बड़े सुख में होगा,

कोई न कहीं दुःख में होगा

सब गीत खुशी के गायेंगे,

तेरा सौभाग्य मनाएंगे।

"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,

साम्राज्य समर्पण करता हूँ

यश मुकुट मान सिंहासन ले,

बस एक भीख मुझको दे दे

कौरव को तज रण रोक सखे,

भू का हर भावी शोक सखे

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,

क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,

फिर कहा "बड़ी यह माया है,

जो कुछ आपने बताया है

दिनमणि से सुनकर वही कथा

मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा

"जब ध्यान जन्म का धरता हूँ,

उन्मन यह सोचा करता हूँ,

कैसी होगी वह माँ कराल,

निज तन से जो शिशु को निकाल

धाराओं में धर आती है,

अथवा जीवित दफनाती है?

"सेवती मास दस तक जिसको,

पालती उदर में रख जिसको,

जीवन का अंश खिलाती है,

अन्तर का रुधिर पिलाती है

आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,

नागिन होगी वह नारि नहीं।

"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,

इस पर न अधिक कुछ भी कहिये

सुनना न चाहते तनिक श्रवण,

जिस माँ ने मेरा किया जनन

वह नहीं नारि कुल्पाली थी,

सर्पिणी परम विकराली थी

"पत्थर समान उसका हिय था,

सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था

गोदी में आग लगा कर के,

मेरा कुल-वंश छिपा कर के

दुश्मन का उसने काम किया,

माताओं को बदनाम किया

"माँ का पय भी न पीया मैंने,

उलटे अभिशाप लिया मैंने

वह तो यशस्विनी बनी रही,

सबकी भौ मुझ पर तनी रही

कन्या वह रही अपरिणीता,

जो कुछ बीता, मुझ पर बीता

"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,

राजाओं के सम्मुख मलीन,

जब रोज अनादर पाता था,

कह 'शूद्र' पुकारा जाता था

पत्थर की छाती फटी नही,

कुन्ती तब भी तो कटी नहीं

"मैं सूत-वंश में पलता था,

अपमान अनल में जलता था,

सब देख रही थी दृश्य पृथा,

माँ की ममता पर हुई वृथा

छिप कर भी तो सुधि ले न सकी

छाया अंचल की दे न सकी

"पा पाँच तनय फूली-फूली,

दिन-रात बड़े सुख में भूली

कुन्ती गौरव में चूर रही,

मुझ पतित पुत्र से दूर रही

क्या हुआ की अब अकुलाती है?

किस कारण मुझे बुलाती है?

"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,

सुत के धन धाम गंवाने पर

या महानाश के छाने पर,

अथवा मन के घबराने पर

नारियाँ सदय हो जाती हैं

बिछुडोँ को गले लगाती है?

"कुन्ती जिस भय से भरी रही,

तज मुझे दूर हट खड़ी रही

वह पाप अभी भी है मुझमें,

वह शाप अभी भी है मुझमें

क्या हुआ की वह डर जायेगा?

कुन्ती को काट न खायेगा?

"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,

मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?

कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,

मेरा सुख या पांडव की जय?

यह अभिनन्दन नूतन क्या है?

केशव! यह परिवर्तन क्या है?

"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,

सब लोग हुए हित के कामी

पर ऐसा भी था एक समय,

जब यह समाज निष्ठुर निर्दय

किंचित न स्नेह दर्शाता था,

विष-व्यंग सदा बरसाता था

"उस समय सुअंक लगा कर के,

अंचल के तले छिपा कर के

चुम्बन से कौन मुझे भर कर,

ताड़ना-ताप लेती थी हर?

राधा को छोड़ भजूं किसको,

जननी है वही, तजूं किसको?

"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,

सच है की झूठ मन में गुनिये

धूलों में मैं था पडा हुआ,

किसका सनेह पा बड़ा हुआ?

किसने मुझको सम्मान दिया,

नृपता दे महिमावान किया?

"अपना विकास अवरुद्ध देख,

सारे समाज को क्रुद्ध देख

भीतर जब टूट चुका था मन,

आ गया अचानक दुर्योधन

निश्छल पवित्र अनुराग लिए,

मेरा समस्त सौभाग्य लिए

"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,

राधा ने माँ का कर्म किया

पर कहते जिसे असल जीवन,

देने आया वह दुर्योधन

वह नहीं भिन्न माता से है

बढ़ कर सोदर भ्राता से है

"राजा रंक से बना कर के,

यश, मान, मुकुट पहना कर के

बांहों में मुझे उठा कर के,

सामने जगत के ला करके

करतब क्या क्या न किया उसने

मुझको नव-जन्म दिया उसने

"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,

जानते सत्य यह सूर्य-सोम

तन मन धन दुर्योधन का है,

यह जीवन दुर्योधन का है

सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,

केशव ! मैं उसे न छोडूंगा

"सच है मेरी है आस उसे,

मुझ पर अटूट विश्वास उसे

हाँ सच है मेरे ही बल पर,

ठाना है उसने महासमर

पर मैं कैसा पापी हूँगा?

दुर्योधन को धोखा दूँगा?

"रह साथ सदा खेला खाया,

सौभाग्य-सुयश उससे पाया

अब जब विपत्ति आने को है,

घनघोर प्रलय छाने को है

तज उसे भाग यदि जाऊंगा

कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा

"मैं भी कुन्ती का एक तनय,

जिसको होगा इसका प्रत्यय

संसार मुझे धिक्कारेगा,

मन में वह यही विचारेगा

फिर गया तुरत जब राज्य मिला,

यह कर्ण बड़ा पापी निकला

"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,

अर्जुन पर भी होगा कलंक

सब लोग कहेंगे डर कर ही,

अर्जुन ने अद्भुत नीति गही

चल चाल कर्ण को फोड़ लिया

सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया

"कोई भी कहीं न चूकेगा,

सारा जग मुझ पर थूकेगा

तप त्याग शील, जप योग दान,

मेरे होंगे मिट्टी समान

लोभी लालची कहाऊँगा

किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?

"जो आज आप कह रहे आर्य,

कुन्ती के मुख से कृपाचार्य

सुन वही हुए लज्जित होते,

हम क्यों रण को सज्जित होते

मिलता न कर्ण दुर्योधन को,

पांडव न कभी जाते वन को

"लेकिन नौका तट छोड़ चली,

कुछ पता नहीं किस ओर चली

यह बीच नदी की धारा है,

सूझता न कूल-किनारा है

ले लील भले यह धार मुझे,

लौटना नहीं स्वीकार मुझे

"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,

भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?

कुल की पोशाक पहन कर के,

सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?

इस झूठ-मूठ में रस क्या है?

केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?

"सिर पर कुलीनता का टीका,

भीतर जीवन का रस फीका

अपना न नाम जो ले सकते,

परिचय न तेज से दे सकते

ऐसे भी कुछ नर होते हैं

कुल को खाते औ' खोते हैं

"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,

चलता ना छत्र पुरखों का धर।

अपना बल-तेज जगाता है,

सम्मान जगत से पाता है।

सब देख उसे ललचाते हैं,

कर विविध यत्न अपनाते हैं

"कुल-जाति नही साधन मेरा,

पुरुषार्थ एक बस धन मेरा।

कुल ने तो मुझको फेंक दिया,

मैने हिम्मत से काम लिया

अब वंश चकित भरमाया है,

खुद मुझे ढूँडने आया है।

"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?

अपने प्रण से विचरूँगा क्या?

रण मे कुरूपति का विजय वरण,

या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,

हे कृष्ण यही मति मेरी है,

तीसरी नही गति मेरी है।

"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,

शीतल हो जाती है काया,

धिक्कार-योग्य होगा वह नर,

जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

हो अलग खड़ा कटवाता है

खुद आप नहीं कट जाता है।

"जिस नर की बाह गही मैने,

जिस तरु की छाँह गहि मैने,

उस पर न वार चलने दूँगा,

कैसे कुठार चलने दूँगा,

जीते जी उसे बचाऊँगा,

या आप स्वयं कट जाऊँगा,

"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,

कब उसे तोल सकता है धन?

धरती की तो है क्या बिसात?

आ जाय अगर बैकुंठ हाथ।

उसको भी न्योछावर कर दूँ,

कुरूप

Rashmirathi Tritiya Sarg Part 2 रश्मीरथी तृतीय सर्ग भाग २ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर

18m · Published 18 Sep 12:45

भगवान सभा को छोड़ चले,

करके रण गर्जन घोर चले

सामने कर्ण सकुचाया सा,

आ मिला चकित भरमाया सा

हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,

ले चढ़े उसे अपने रथ पर।

रथ चला परस्पर बात चली,

शम-दम की टेढी घात चली,

शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,

अब शेष नही कोई उपाय

हो विवश हमें धनु धरना है,

क्षत्रिय समूह को मरना है।

"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?

विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?

पर, दुर्योधन मतवाला है,

कुछ नहीं समझने वाला है

चाहिए उसे बस रण केवल,

सारी धरती कि मरण केवल

"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,

क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?

वह भी कौरव को भारी है,

मति गई मूढ़ की मरी है

दुर्योधन को बोधूं कैसे?

इस रण को अवरोधूं कैसे?

"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,

रण में जब काल प्रकट होगा?

बाहर शोणित की तप्त धार,

भीतर विधवाओं की पुकार

निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,

बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे।

"चिंता है, मैं क्या और करूं?

शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?

सब राह बंद मेरे जाने,

हाँ एक बात यदि तू माने,

तो शान्ति नहीं जल सकती है,

समराग्नि अभी तल सकती है।

"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,

तू एकमात्र उसका जीवन

तेरे बल की है आस उसे,

तुझसे जय का विश्वास उसे

तू संग न उसका छोडेगा,

वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?

"क्या अघटनीय घटना कराल?

तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,

बन सूत अनादर सहता है,

कौरव के दल में रहता है,

शर-चाप उठाये आठ प्रहार,

पांडव से लड़ने हो तत्पर।

"माँ का सनेह पाया न कभी,

सामने सत्य आया न कभी,

किस्मत के फेरे में पड़ कर,

पा प्रेम बसा दुश्मन के घर

निज बंधू मानता है पर को,

कहता है शत्रु सहोदर को।

"पर कौन दोष इसमें तेरा?

अब कहा मान इतना मेरा

चल होकर संग अभी मेरे,

है जहाँ पाँच भ्राता तेरे

बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,

हम मिलकर मोद मनाएंगे।

"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,

बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ

मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,

तेरा अभिषेक करेंगे हम

आरती समोद उतारेंगे,

सब मिलकर पाँव पखारेंगे।

"पद-त्राण भीम पहनायेगा,

धर्माचिप चंवर डुलायेगा

पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,

सहदेव-नकुल अनुचर होंगे

भोजन उत्तरा बनायेगी,

पांचाली पान खिलायेगी

"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !

आनंद-चमत्कृत जग होगा

सब लोग तुझे पहचानेंगे,

असली स्वरूप में जानेंगे

खोयी मणि को जब पायेगी,

कुन्ती फूली न समायेगी।

"रण अनायास रुक जायेगा,

कुरुराज स्वयं झुक जायेगा

संसार बड़े सुख में होगा,

कोई न कहीं दुःख में होगा

सब गीत खुशी के गायेंगे,

तेरा सौभाग्य मनाएंगे।

"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,

साम्राज्य समर्पण करता हूँ

यश मुकुट मान सिंहासन ले,

बस एक भीख मुझको दे दे

कौरव को तज रण रोक सखे,

भू का हर भावी शोक सखे

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,

क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,

फिर कहा "बड़ी यह माया है,

जो कुछ आपने बताया है

दिनमणि से सुनकर वही कथा

मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा

"जब ध्यान जन्म का धरता हूँ,

उन्मन यह सोचा करता हूँ,

कैसी होगी वह माँ कराल,

निज तन से जो शिशु को निकाल

धाराओं में धर आती है,

अथवा जीवित दफनाती है?

"सेवती मास दस तक जिसको,

पालती उदर में रख जिसको,

जीवन का अंश खिलाती है,

अन्तर का रुधिर पिलाती है

आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,

नागिन होगी वह नारि नहीं।

"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,

इस पर न अधिक कुछ भी कहिये

सुनना न चाहते तनिक श्रवण,

जिस माँ ने मेरा किया जनन

वह नहीं नारि कुल्पाली थी,

सर्पिणी परम विकराली थी

"पत्थर समान उसका हिय था,

सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था

गोदी में आग लगा कर के,

मेरा कुल-वंश छिपा कर के

दुश्मन का उसने काम किया,

माताओं को बदनाम किया

"माँ का पय भी न पीया मैंने,

उलटे अभिशाप लिया मैंने

वह तो यशस्विनी बनी रही,

सबकी भौ मुझ पर तनी रही

कन्या वह रही अपरिणीता,

जो कुछ बीता, मुझ पर बीता

"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,

राजाओं के सम्मुख मलीन,

जब रोज अनादर पाता था,

कह 'शूद्र' पुकारा जाता था

पत्थर की छाती फटी नही,

कुन्ती तब भी तो कटी नहीं

"मैं सूत-वंश में पलता था,

अपमान अनल में जलता था,

सब देख रही थी दृश्य पृथा,

माँ की ममता पर हुई वृथा

छिप कर भी तो सुधि ले न सकी

छाया अंचल की दे न सकी

"पा पाँच तनय फूली-फूली,

दिन-रात बड़े सुख में भूली

कुन्ती गौरव में चूर रही,

मुझ पतित पुत्र से दूर रही

क्या हुआ की अब अकुलाती है?

किस कारण मुझे बुलाती है?

"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,

सुत के धन धाम गंवाने पर

या महानाश के छाने पर,

अथवा मन के घबराने पर

नारियाँ सदय हो जाती हैं

बिछुडोँ को गले लगाती है?

"कुन्ती जिस भय से भरी रही,

तज मुझे दूर हट खड़ी रही

वह पाप अभी भी है मुझमें,

वह शाप अभी भी है मुझमें

क्या हुआ की वह डर जायेगा?

कुन्ती को काट न खायेगा?

"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,

मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?

कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,

मेरा सुख या पांडव की जय?

यह अभिनन्दन नूतन क्या है?

केशव! यह परिवर्तन क्या है?

"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,

सब लोग हुए हित के कामी

पर ऐसा भी था एक समय,

जब यह समाज निष्ठुर निर्दय

किंचित न स्नेह दर्शाता था,

विष-व्यंग सदा बरसाता था

"उस समय सुअंक लगा कर के,

अंचल के तले छिपा कर के

चुम्बन से कौन मुझे भर कर,

ताड़ना-ताप लेती थी हर?

राधा को छोड़ भजूं किसको,

जननी है वही, तजूं किसको?

"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,

सच है की झूठ मन में गुनिये

धूलों में मैं था पडा हुआ,

किसका सनेह पा बड़ा हुआ?

किसने मुझको सम्मान दिया,

नृपता दे महिमावान किया?

"अपना विकास अवरुद्ध देख,

सारे समाज को क्रुद्ध देख

भीतर जब टूट चुका था मन,

आ गया अचानक दुर्योधन

निश्छल पवित्र अनुराग लिए,

मेरा समस्त सौभाग्य लिए

"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,

राधा ने माँ का कर्म किया

पर कहते जिसे असल जीवन,

देने आया वह दुर्योधन

वह नहीं भिन्न माता से है

बढ़ कर सोदर भ्राता से है

"राजा रंक से बना कर के,

यश, मान, मुकुट पहना कर के

बांहों में मुझे उठा कर के,

सामने जगत के ला करके

करतब क्या क्या न किया उसने

मुझको नव-जन्म दिया उसने

"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,

जानते सत्य यह सूर्य-सोम

तन मन धन दुर्योधन का है,

यह जीवन दुर्योधन का है

सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,

केशव ! मैं उसे न छोडूंगा

"सच है मेरी है आस उसे,

मुझ पर अटूट विश्वास उसे

हाँ सच है मेरे ही बल पर,

ठाना है उसने महासमर

पर मैं कैसा पापी हूँगा?

दुर्योधन को धोखा दूँगा?

"रह साथ सदा खेला खाया,

सौभाग्य-सुयश उससे पाया

अब जब विपत्ति आने को है,

घनघोर प्रलय छाने को है

तज उसे भाग यदि जाऊंगा

कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा

"मैं भी कुन्ती का एक तनय,

जिसको होगा इसका प्रत्यय

संसार मुझे धिक्कारेगा,

मन में वह यही विचारेगा

फिर गया तुरत जब राज्य मिला,

यह कर्ण बड़ा पापी निकला

"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,

अर्जुन पर भी होगा कलंक

सब लोग कहेंगे डर कर ही,

अर्जुन ने अद्भुत नीति गही

चल चाल कर्ण को फोड़ लिया

सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया

"कोई भी कहीं न चूकेगा,

सारा जग मुझ पर थूकेगा

तप त्याग शील, जप योग दान,

मेरे होंगे मिट्टी समान

लोभी लालची कहाऊँगा

किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?

"जो आज आप कह रहे आर्य,

कुन्ती के मुख से कृपाचार्य

सुन वही हुए लज्जित होते,

हम क्यों रण को सज्जित होते

मिलता न कर्ण दुर्योधन को,

पांडव न कभी जाते वन को

"लेकिन नौका तट छोड़ चली,

कुछ पता नहीं किस ओर चली

यह बीच नदी की धारा है,

सूझता न कूल-किनारा है

ले लील भले यह धार मुझे,

लौटना नहीं स्वीकार मुझे

"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,

भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?

कुल की पोशाक पहन कर के,

सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?

इस झूठ-मूठ में रस क्या है?

केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?

"सिर पर कुलीनता का टीका,

भीतर जीवन का रस फीका

अपना न नाम जो ले सकते,

परिचय न तेज से दे सकते

ऐसे भी कुछ नर होते हैं

कुल को खाते औ' खोते हैं

"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,

चलता ना छत्र पुरखों का धर।

अपना बल-तेज जगाता है,

सम्मान जगत से पाता है।

सब देख उसे ललचाते हैं,

कर विविध यत्न अपनाते हैं

"कुल-जाति नही साधन मेरा,

पुरुषार्थ एक बस धन मेरा।

कुल ने तो मुझको फेंक दिया,

मैने हिम्मत से काम लिया

अब वंश चकित भरमाया है,

खुद मुझे ढूँडने आया है।

"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?

अपने प्रण से विचरूँगा क्या?

रण मे कुरूपति का विजय वरण,

या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,

हे कृष्ण यही मति मेरी है,

तीसरी नही गति मेरी है।

"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,

शीतल हो जाती है काया,

धिक्कार-योग्य होगा वह नर,

जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

हो अलग खड़ा कटवाता है

खुद आप नहीं कट जाता है।

"जिस नर की बाह गही मैने,

जिस तरु की छाँह गहि मैने,

उस पर न वार चलने दूँगा,

कैसे कुठार चलने दूँगा,

जीते जी उसे बचाऊँगा,

या आप स्वयं कट जाऊँगा,

"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,

कब उसे तोल सकता है धन?

धरती की तो है क्या बिसात?

आ जाय अगर बैकुंठ हाथ।

उसको भी न्योछावर कर दूँ,

कुरूपति के चरणों में धर दूँ।

"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,

उस दिन के लिए मचलता हूँ,

यदि चले वज्र दुर्योधन पर,

ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर।

कटवा दूँ उसके लिए गला,

चाहिए मुझे क्या और भला?

"सम्राट बनेंगे धर्मराज,

या पाएगा कुरूरज ताज,

लड़ना भर मेरा कम रहा,

दुर्योधन का संग्राम रहा,

मुझको न कहीं कुछ पाना है,

केवल ऋण मात्र चुकाना है।

"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?<

Rashmirathi Tritiya Sarg Part 1 रश्मीरथी तृतीय सर्ग भाग १ Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर' कृष्ण की चेतावनी, Krishna ki Chetavani

9m · Published 15 Sep 14:41

1

हो गया पूर्ण अज्ञात वास,

पाडंव लौटे वन से सहास,

पावक में कनक-सदृश तप कर,

वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,

नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,

कुछ और नया उत्साह लिये।

सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

शूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग-निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूल नसाने को,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके वीर नर के मग में

खम ठोंक ठेलता है जब नर,

पर्वत के जाते पाँव उखड़।

मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भीतर,

मेंहदी में जैसे लाली हो,

वर्तिका-बीच उजियाली हो।

बत्ती जो नहीं जलाता है

रोशनी नहीं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,

झरती रस की धारा अखण्ड,

मेंहदी जब सहती है प्रहार,

बनती ललनाओं का सिंगार।

जब फूल पिरोये जाते हैं,

हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ?

भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?

अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?

नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?

जिसने न कभी आराम किया,

विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं,

सोते से हमें जगाते हैं,

मन को मरोड़ते हैं पल-पल,

तन को झँझोरते हैं पल-पल।

सत्पथ की ओर लगाकर ही,

जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं,

आराम और रण एक नहीं।

वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,

पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।

वन में प्रसून तो खिलते हैं,

बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,

छाया देता केवल अम्बर,

विपदाएँ दूध पिलाती हैं,

लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।

जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,

वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,

मेरे किशोर! मेरे ताजा!

जीवन का रस छन जाने दे,

तन को पत्थर बन जाने दे।

तू स्वयं तेज भयकारी है,

क्या कर सकती चिनगारी है?

वर्षों तक वन में घूम-घूम,

बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,

सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,

पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।

'दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशिष समाज की ले न सका,

उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-

'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।

'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,

चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,

शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

'भूलोक, अतल, पाताल देख,

गत और अनागत काल देख,

यह देख जगत का आदि-सृजन,

यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,

पहचान, कहाँ इसमें तू है।

'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,

पद के नीचे पाताल देख,

मुट्ठी में तीनों काल देख,

मेरा स्वरूप विकराल देख।

सब जन्म मुझी से पाते हैं,

फिर लौट मुझी में आते हैं।

'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,

साँसों में पाता जन्म पवन,

पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,

हँसने लगती है सृष्टि उधर!

मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,

छा जाता चारों ओर मरण।

'बाँधने मुझे तो आया है,

जंजीर बड़ी क्या लाया है?

यदि मुझे बाँधना चाहे मन,

पहले तो बाँध अनन्त गगन।

सूने को साध न सकता है,

वह मुझे बाँध कब सकता है?

'हित-वचन नहीं तूने माना,

मैत्री का मूल्य न पहचाना,

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,

अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहीं, अब रण होगा,

जीवन-जय या कि मरण होगा।

'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

फण शेषनाग का डोलेगा,

विकराल काल मुँह खोलेगा।

दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

फिर कभी नहीं जैसा होगा।

'भाई पर भाई टूटेंगे,

विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,

सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

आखिर तू भूशायी होगा,

हिंसा का पर, दायी होगा।'

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,

चुप थे या थे बेहोश पड़े।

केवल दो नर ना अघाते थे,

धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,

दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

Rashmirathi Dwitiya Sarg Part 2 रश्मीरथी द्वितीय सर्ग भाग 2 - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

15m · Published 14 Sep 03:32

A very emotional episode between Karna and Parshuram...

Please use headphones.

Reach me at [email protected]

गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,

तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।

वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,

और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।

कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,

बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?

पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,

बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।

किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती,

सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती।

सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा,

गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा।

बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,

आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।

किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में,

परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।

कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर,

बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर।

परशुराम बोले- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,

सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।'

तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको,

महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?

मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे,

क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे।

'निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा,

छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?

पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया,

लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।'

परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,

फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।

दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू?

ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?

'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,

किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।

सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,

बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।

'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,

किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?

कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?

इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।

'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,

परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'

'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर,

मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!

'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,

जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ

छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,

आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।

'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,

तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।

पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,

महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।

'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,

करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।

पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,

मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।

'छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,

ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।

पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,

अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?

'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,

एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।

गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा,

पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?

'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?

प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।

दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?

अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?

'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,

बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।

प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,

इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।'

लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,

दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।

बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?

निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?

'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,

मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।

देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,

पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

'तूने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से,

क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से?

किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,

सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।

'नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,

तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।

पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,

परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।

'सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको?

किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको?

सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?

जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?'

पद पर बोला कर्ण, 'दिया था जिसको आँखों का पानी,

करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी।

बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा,

दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।'

परशुराम ने कहा-'कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,

तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?

पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा,

परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा।

'मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,

पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।

सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,

है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।

कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर?

दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर?

वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं?

अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'

परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो,

जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो।

इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,

मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।

'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?

एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है।

नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,

नये भाव, नूतन उमंग से, वीर बने रहते नूतन।

'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,

इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी।

अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे,

भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।

'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,

रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।

हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,

सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?

'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।

इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।

अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।

देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।

'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,

मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने क्यों, जय?

अनायास गुण-शील तुम्हारे, मन में उगते आते हैं,

भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।

जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो

बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।

भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये,

फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।'

इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा लिया आनन अपना,

जहाँ मिला था, वहीं कर्ण का बिखर गया प्यारा सपना।

छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया,

और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।

परशुधर के चरण की धूलि लेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,

निराशा सेविकल, टूटा हुआ-सा, किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,

चला खोया हुआ-सा कर्ण मन में,

कि जैसे चाँद चलता हो गगन में।

Rashmirathi Dwitiya Sarg Part 1 रश्मीरथी द्वितीय सर्ग भाग १ - Ram Dhari Singh 'Dinkar' रामधारी सिंह 'दिनकर'

13m · Published 13 Sep 05:50

This part describes Aashram of Parshuram and his philosophy. A must-listen episode. Have worked hard for it. Have tried to use some new techniques. I hope you all like it.

2. द्वितीय सर्ग

शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,

कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।

जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,

हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।

आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,

शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।

कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,

कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।

हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,

भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,

धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?

झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।

बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,

वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।

सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,

नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?

परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।

कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,

कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,

चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,

कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।

'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन,

हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।

किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,

और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।

'कहते हैं, 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,

मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?

अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,

सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।

'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।

'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।

विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?

कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?

जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?

क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,

मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।

खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,

इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।

और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,

राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,

डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।

औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,

परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।

'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,

और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।

रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,

बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।

'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,

भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।

ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,

और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,

ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।

कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,

धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?

यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।

चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,

जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।

जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।

चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;

पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,

कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,

भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्‌ग की भाषा को।

'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,

ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।

इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो,

हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

'रोज कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्‌ग महाभयकारी है,

इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।

वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,

जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है,

मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।

सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो,

विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,

सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।

'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,

दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,

परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?

पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,

तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,

एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।

निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,

तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,

मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।

गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?

और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,

पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।

और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,

एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?

कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?

धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?

जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?

'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?

सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?

मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,

चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।

'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,

कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,

तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;

नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?

'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,

छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!

हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,

जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'

Aah se Upja Gaan has 21 episodes in total of non- explicit content. Total playtime is 7:22:18. The language of the podcast is Hindi. This podcast has been added on July 4th 2022. It might contain more episodes than the ones shown here. It was last updated on April 30th, 2024 17:40.

Every Podcast » Podcasts » Aah se Upja Gaan